जीवन में दुत्कार बहुत है
द्वार तुम्हारे आया हूँ प्रिय,
जीवन में दुत्कार बहुत है।
जीवन का मधु हर्ष बनो तुम,
जीवन का नव वर्ष बनो तुम,
तुम कलियों सी खिल खिल जाओ,
चंदा किरणों -सी मुसकाओं,
रखना याद मुझे तुम रागिन,
अंतिम यह फरियाद सुहागिन।
कैसे अपना दिल बहलाऊँ
इस दिल पर भार बहुत है।
देखो यह नटखट पन छोड़ो,
मुझसे प्रेयसी, तुम मुँह मत मोड़ों,
आओ गृह की ओर चलें हम,
जग बन्धन को तोड़ चले हम,
तुमको पाकर धन्य बनूंगा,
प्यार -प्रीति में नित्य सुनूँगा।
तेरे हित में मुझको अब मरना है,
जीवन में अंगार बहुत है।
संध्या की यह मधुमय बेला,
रह जाता हूँ यहाँ अकेला,
सूरज की किरणों का मेला,
रचता है जीवन से खेला,
अपना तन-मन भार बनाकर,
चल पड़ता गृह, हार मनाकर।
कल समझौता होगा प्रिय,
जीवन में मनुहार बहुत है।
दुनिया कल यदि बोल सकेगी,
प्यार हमारा तोल सकेगी,
स्वत्व नहीं है उसको इतना,
कर ले बर्बरता हो जितना,
उसको क्या अधिकार यहां है,
कि रच दे विरह कि प्यार जहां है।
प्यार नयन की भाषा
यह इजहार बहुत है।
नव प्रभात की नूतन लाली,
रंग जाती है धरती थाली,
भौंरों के जब झुण्ड मनोहर,
गुंजित करते कुसुम -सरोवर ,
मथनी उर को मेरी हारें,
हाय, न क्यों तुम मुझे दुलारे।
कैसे तुमको राग सुनाऊं,
जीवन-तार बहुत है।
— कालिका प्रसाद सेमवाल