गीतिका/ग़ज़ल

दोहा गीतिका

आँखों में दिखता नहीं, बिल्कुल पानी मित्र।
जान-बूझकर है बना, मनु अज्ञानी मित्र।

गोरखधंधे अब करें, होकर के निर्भीक।
छीना-झपटी में लगे, हैं अज्ञानी मित्र।

हैं उपाधियाँ नाम की, कुछ लोगों के पास।
सरकारी नौकर बने, बनते ज्ञानी मित्र।

जनता जाए भाड़ में, लेंगे रिश्वत रोज।
इज्जत की चिंता नहीं पाप निशानी मित्र।

चूसें खून गरीब का, और करें अहसान।
खड़ी करें अट्टालिका, सत्य कहानी मित्र।

बने हुए बेशर्म कुछ केवल पैसा बाप।
पाप कमाई नित करें, बनते दानी मित्र।

तिलक लगाकर घूमते, करते मदिरापान।
चिलम पी रहे चरस की, नाश निशानी मित्र।

अपने फायदे के लिए, करते उल्टे काम।
व्यसनों में हैं खो रहे, युवा जवानी मित्र।

शिवशंकर का नाम ले, धूर्त पी रहे भंग।
कहते यही प्रसाद है, प्रथम पुरानी मित्र।

निर्लेपी भगवान को, नित्य लगावें लेप।
नहीं भुजा पग नाक है, या पेशानी मित्र।

ईश्वर करता न्याय है, बिना भेद तकरार।
सत्य निष्ठ पुरु की करें,रात सुहानी मित्र।

कुछ तो भगवान से डरो, करो न्यायप्रिय बात।
प्रेम सत्य की बात ही, आज बखानी मित्र।

— प्रेम सिंह राजावत प्रेम

प्रेम सिंह "प्रेम"

आगरा उत्तर प्रदेश M- ९४१२३००१२९ [email protected]