ग़ज़ल
चार पैसे के लिए जो छोड़कर घर-द्वार आये।
सोचते हैं वो मुलाज़िम क्यों यहाँ बेकार आये?
कल उजाले से मिटेगी ये भयावह रात काली,
ये न समझो ज़िंदगी की हर ख़ुशी को हार आये।
ख़्वाहिशें कुछ ख़्वाब लेकर उड़ चले थे जो पखेरू,
फड़फड़ाते जाँ बचाते लौटकर लाचार आये।
कैद करना चाहता जब आदमी आबो-हवा भी,
तोड़ने मगरूरियत रब की तभी सरकार आये।
आज के हालात से है ग़मजदा मायूस दिल अब,
क्यों भला इंसानियत को हम सभी हैं मार आये?
है शिफ़ा हाकिम को हासिल वो ज़मी का देवता है,
आस जीने की भरे जब सामने बीमार आये।
बेबसी में घुट रहा मन पूछता है बस यही तो,
आपदा के रूप में क्या विष बुझे हथियार आये?
मच गई हलचल समन्दर में उठा सैलाब कोई,
चाहती हर एक नौका कर भँवर को पार आये।
काश! ऐसा हो ‘अधर’ फिर से हँसे संसार सारा,
ज़िंदगी में हर किसी के ख़ूबसूरत प्यार आये।।
— शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’