मुक्ति का साधन इन्द्रिय-संयम
[एक मित्र ने शंका रखी है कि क्या इन्द्रिय-संयम अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन जीवन में अनिवार्य है? इस लेख के द्वारा इस शंका का समाधान किया जा रहा है।]
वेदादि सत्य शास्त्रों ने मोक्ष-मार्ग के पथिक के लिए ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य बताया है। एक साधक के लिए इन्द्रिय-संयम उसी प्रकार आवश्यक है, जैसे किसी वृक्ष के लिए जल। यदि वृक्ष को जल न मिले तो वह सूखकर सड़ जाता है, उसी प्रकार यदि साधक इन्द्रिय-संयम न करे तो वह शारीरिक व मानसिक भोग-विलासों का भागी बनता है। मनु महाराज कहते हैं- “इन्द्रियों की दासता से, निश्चय ही, दोष को प्राप्त होता है। इन पर संयम करने से ही सफलता प्राप्त होती है (मनु० २/९३)”। इन्द्रियां मुक्ति तक नहीं पहुंचती बल्कि आत्मा को मुक्ति मिलती है। इन्द्रियां तो मात्र साधन हैं और आत्मा इनका स्वामी। कठ-उपनिषद् (१/३/३,४) में इसे एक सुन्दर अलंकार से समझाया गया है-
“यह शरीर एक रथ के सदृश है। इसका स्वामी आत्मा है, वह रथी है। बुद्धि आत्मा की सारथी है और मन लगाम है। इन्द्रियां घोड़े हैं और इन्द्रियों के विषय वे मार्ग हैं जिन पर इन्द्रियां रूपी घोड़े दौड़ते हैं। मनीषी व्यक्ति आत्मा, इन्द्रियां और मन इन्हें मिलाकर भोक्ता कहते हैं।”
पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ और ग्यारहवां मन- ये सब आत्मा के वाहन हैं। इन सबको सांसारिक विषय में केन्द्रित करने पर साधक मुक्ति को कभी प्राप्त नहीं हो सकता। मुक्ति को प्राप्त करने के लिए उसे इन सबको स्वयं के अधीन करके ईश्वर-चिन्तन पर अपना लक्ष्य केन्द्रित करना होगा। यम ऋषि कहते हैं-
“शरीर में इन्द्रियों के विषय रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द- सूक्ष्म हैं। इन्द्रियां तो दिखाई देती हैं पर ये विषय दिखाई नहीं देते। इन विषयों की अपेक्षा मन सूक्ष्म है और मन की अपेक्षा बुद्धि सूक्ष्म है। बुद्धि की अपेक्षा यह आत्मा महान् है, दूर है और अति सूक्ष्म है।” -कठ० १/३/१०
इन इन्द्रियों को वश में कैसे करना चाहिए? महर्षि मनु कहते हैं-
“इन इन्द्रियों को विषयों की सेवा में केवल न लगाने से ही वश में नहीं किया जा सकता। निरन्तर ज्ञान प्राप्ति ही इसका सर्वोत्तम उपाय है।” -मनु० २/९६
मनु ने जितेन्द्रिय मनुष्य के लक्षण भी इस प्रकार बताए हैं-
“जो व्यक्ति सुनकर, छूकर, देखकर, खाकर, सूंघकर न हर्ष करता है और न शोक करता है, वही जितेन्द्रिय जानना चाहिए।” -मनु० २/९८
मनु घोड़े की उपमा से स्पष्ट करते हुए इन्द्रिय-संयम का उपाय बताते हैं-
“जैसे सारथि घोड़े को कुपथ में नहीं जाने देता वैसे विद्वान् ब्रह्मचारी आकर्षण करने वाले विषयों में जाते हुए इन्द्रियों के रोकने में सदा प्रयत्न किया करे।” -मनु० २/८८
महर्षि पतञ्जलि के शब्दों में- “अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:” अर्थात् अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चंचल मन को, चित्त की वृत्तियों को रोकना चाहिए (यो० द० समाधि० १२)।
इन्द्रिय-संयम के विषय में यम ऋषि के वचन बड़े ही मार्मिक हैं-
“जिसने रथ रूपी शरीर की इन्द्रियों के वास्तविक रूप को जान लिया है और जिसका मन सदा आत्मा के अधीन रहता है, इन्द्रियां उसी के वश में रहती हैं, जैसे अच्छे घोड़े सारथि के काबू में रहते हैं।” -कठ० १/३/६
आगे ऋषि कहते हैं-
“श्रेय मार्ग के पथिक को चाहिए कि वह अपने मन और वाणी को विषयों से रोके और फिर उनको अपनी बुद्धि में स्थिर करे, उस बुद्धि को महान् आत्मा में स्थित करे, इसके बाद आत्मा को शान्त परमात्मा के साथ जोड़े।” -कठ० १/३/१३
इस श्लोक में ऋषि ने आत्म-विकास के तीन क्रम बताए हैं- ज्ञानात्मा, महानात्मा और शान्तात्मा।
इन्द्रियों की इस सहज चंचलता को दृष्टि में रखते हुए वेद में भक्त बड़ी विनम्रता से प्रभु से प्रार्थना करता है-
ओ३म्। इमामि यानि पंचेन्द्रियाणि मन: षष्ठानि मे हृदि ब्रह्मणा संशितानि। यैरेव ससृजे घोरं तैरेव शान्तिरस्तु स:।। -अथर्व० १९/९/५
ये जो पांच इन्द्रियां हैं और जिनके साथ छठा मन है, ईश्वर कृपा से जिनका तीव्रता के साथ मेरे हृदय में स्थान है, जिनके द्वारा ही भयंकर कार्य किये जाते हैं, इन इन्द्रियों और मन के द्वारा ही हमें शान्ति प्राप्त हो।
यहां एक प्रश्न पैदा होता है कि जब इन इन्द्रियों द्वारा इतने भयंकर परिणामों की सम्भावना है और ये बारम्बार कुमार्ग की ओर प्रेरित करती है, तब क्यों न इसका नाश ही कर दिया जाए? “न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी”- कुछ लोग ऐसा ही कहते और मानते हैं। इतिहास में ऐसी कई घटनाएं मिलती हैं जहां इस भ्रान्त धारणा का शिकार हो व्यक्ति ने अपनी किसी इन्द्रिय का नाश ही कर दिया।
बौद्ध इतिहास की घटना है। एक युवक बौद्ध भिक्षु किसी गृहस्थ के घर भिक्षा मांगने गया। वहां एक रूपवती कन्या को देख मुग्ध हो गया और कन्या भी उस युवक की ओर विशेष आकृष्ट हो गयी। भिक्षु ने बिहार में वापस आ, अपनी इस मानसिक निर्बलता का वर्णन अपने गुरु से किया। उसने भिक्षु को आदेश दिया कि वह अपनी दोनों आंखें फोड़ दे। शिष्य ने गुरु के आदेश का तत्काल पालन किया। “पर क्या यह समुचित कहा जा सकता है? क्या आंख फोड़ देने मात्र से उस रूपवती कन्या का ध्यान उसके मन से निकल जाएगा? मानसिक वासना तो फिर भी रहेगी।”
सूरदास का पछतावा
हिन्दी के सुविख्यात कवि और लेखक श्री रामनरेश त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक “कविता कौमुदी” में सूरदास कवि का परिचय देते हुए लिखा है-
“सूरदास जन्म के अन्धे न थे। ऐसी कहावत है कि एक बार ये एक युवती को देखकर उस पर मुग्ध हो गए। उसकी ओर एकटक ताकते हुए ये बहुत देर तक खड़े रहे। अन्त में वह युवती इनके पास स्वयं आयी और कहने लगी- ‘महाराज, क्या आज्ञा है?’ सूरदास को उस समय अपनी स्थिति पर बड़ी लज्जा आयी। इन्होंने यह दोष आंखों का समझ कर उस युवती को कहा कि ‘यदि तुम मेरी आज्ञा मानती हो तो सुई से मेरी दोनों आंखें फोड़ दो।’ युवती ने आज्ञानुसार ऐसा ही किया। तब से सूरदास अन्धे हो गए। भक्तमाल में लिखा है कि सूरदास जन्म के अन्धे थे। परन्तु इस पर सहसा विश्वास नहीं होता, क्योंकि इन्होंने अपनी कविता में रंगों का, ज्योति का और अनेक प्रकार के हाव-भावों का ऐसा यथार्थ वर्णन किया है जो बिना आंखों से देखे, केवल सुनकर, नहीं किया जा सकता।” (पृ० १९२, १९५४ का आठवां संस्करण)
ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी आंखों का इस प्रकार विनाश कर सूरदास को जीवन में पछतावा भी हुआ। वे अपने एक पद में कहते हैं-
ऊधो! अँखियां अति अनुरागी।
इक टक मग जोवति उरु रोवति भूलेहु पलक न लागी।।
वैदिक धर्म में इन्द्रियों की श्रेष्ठता
वैदिक धर्म में इन्द्रियों को कहीं भी गर्हित नहीं माना गया है। स्वयं “इन्द्रिय” शब्द ही बड़ा अर्थपूर्ण है। इसकी धातु है “इदि परमैश्वर्य”। इस धातु से “रन्” प्रत्यय होकर “इन्द्र” शब्द सिद्ध होता है। इसका अर्थ है “य इन्दति परमैश्वर्यवान भवति स इन्द्र:”। जो अखिल ऐश्वर्य युक्त है, इससे परमात्मा का नाम “इन्द्र” है। इस “इन्द्र” शब्द से ही निपातनात् घञ् प्रत्यय होकर “इन्द्रिय” बनता है, जिसका अर्थ है कि जो ईश्वर प्राप्ति के लिए सहायक है। हलायुध कोश के अनुसार “इन्द्रियम्” का लक्षण है “इन्द्रस्यात्मनो लिगमनुमापकम्” “इन्द्रेण ईश्वरेण सृष्टम्” अर्थात् इन्द्र के (आत्मा) के चिह्नन का जो मापक साधन है वह इन्द्रिय और इन्द्र ईश्वर से जिसकी रचना हुई हो वह इन्द्रिय है।
उपनिषदों में इन्द्रियों को “ख” नाम से कहा गया है। कठोपनिषद् (२/४/१) में “ख” नाम से इन्द्रियों के कार्य का निम्न शब्दों में वर्णन किया गया है-
“स्वयंभू अर्थात् परमात्मा ने (खानि) इन्द्रियों को बाहर की ओर जाने वाला बनाया है, इसलिए मनुष्य बहिर्मुख ही रहता है, अन्तर्मुख, आत्ममुख, नहीं होता। अमृत की इच्छा करने वाला कोई अनोखा मनुष्य ही ऐसा होता है जो बाह्य विषयों से अपनी इन्द्रियों को हटाता और अमृत की इच्छा करता हुआ भीतर की ओर देखता है।”
इस “ख” के साथ जब “सु” उपसर्ग लग जाय तब वह “सुख” कहा जाता है, अर्थात् जो इन्द्रियों के अनुकूल हो। जब “दु:” उपसर्ग लग जाय, तब “दुःख” कहा जाता है अर्थात् जो इन्द्रियों के प्रतिकूल हो। फलतः “सुख” और “दुःख” की इकाई और मूल आधार इन्द्रियां ही हैं।
— प्रियांशु सेठ
[सहायक ग्रन्थ-: ‘मुक्ति का मार्ग’- महात्मा नारायण स्वामी]