कविता

कविता

पेड़ों की झुरमुटों से सूरज झांकता है,

मानोअपने होने का निशान ताकता है।
चारो तरफ बस बेचारगी समाई है,
जाने किसने चमक वतन की चुराई है।
कहने को तो हर गली मोहल्ला अपना है,
पर आज इसे देख पाना भी एक सपना है।
जाने कहाँ गुमशुदा आज पहचान हो गई,
 शहर मेरा आज वजूद अपना तलाशता है।
वक्त को आज वक्त की ये कैसी मार पड़ी है,
खड़ी दरवाजे पे ये कैसी मुश्किल घड़ी है।
हर कोई आज मददगार हुआ है यहां अपना,
और हर कोई मदद के लिए रब को निहारता है।
रास्तों ने मंजिलों को जैसे भटका दिया हो,
सारे शहर को जैसै सूली पे लटका दिया हो।
अपना ही चेहरा अपनी ही आंखों में देखो,
आज अपनी ही सूरत को कैसे तराशता है।
— आरती त्रिपाठी

आरती त्रिपाठी

जिला सीधी मध्यप्रदेश