संवरने गये थे, ऊजड़कर लौट रहे हैं
रात के सन्नाटे भरे अंधेरे में
दूर टिमटिमाती रौशनी तो सभी देखते हैं
लेकिन अंधेरा कौन देखता है
मगर क्या अंधेरा दिखाई नहीं देता है ?
रेलगाड़ी के गुजरने की आवाज आ रही है
मगर मैं यह आवाज सुनना नहीं चाहता हूँ
इस इलाके के हजारों लोग बिना मूंछों के
इसी रेल पर सवार होकर परदेश गये थे
और अब महामारी से बचने के लिए
सफेद बाल और नकली दांत के साथ
वापस अपने-अपने गांव लौट रहे हैं।
चार दिन हो गये
और कोई कुत्ता नज़र नहीं आया
कौव्वे भी दिखे एकाध ही
एकाध ही मिली गाय
इस गांव के सारे कौव्वे, कुत्ते और गाय
कहां चले गये ?
रौनशी से रिक्त,
अंधेरे से भरे
कौव्वे,कुत्ते और गाय विहीन
देसी परदेसियों के इस गांव में
अभी भी उनके पुरखों के कब्र बचे हैं !
वे सवरने गये थे
लेकिन ऊजड़कर लौट रहे हैं
वह आदिम विश्वास उन्हें खींचकर ला रही है
जिसे वे मिट्टी के चुल्हे, फूस की छत
और घीया साग के पास अमानत रखकर
महानगरों की धूल फांकने गये थे।
वे लौट रहे हैं
अपनी अमानत वापस पाने के लिए
अपने पुरखों की हड्डियों से
खुरपी, दरांती और कुदाल बनाने के लिए
उनका लौटना
मनुष्य के मशीन बनने से बचने की शुरुआत है
जीवित रहने के लिए नहीं,
वे लौट रहे हैं आदमी बने रहने के लिए !