ईश्वर, वेद, जीवात्मा, सृष्टि, जन्म-मरण, पुनर्जन्म का सत्यस्वरूप क्या हैं?
ओ३म्
मनुष्य अल्पज्ञ प्राणी है। सभी लोग प्रायः सरकारी व निजी स्कूलों-कालेजों में पढ़ते हैं। भारत एक सेकुलर देश है। यहां मनुष्यों के शाश्वत व सनातन धर्म विषयक सत्य बातों की भी उपेक्षा की जाती है। उसे स्कूलों में पढ़ाया व बताया नहीं जाता जिसका परिणाम यह हुआ है कि अधिकांश हिन्दू बन्धु धर्म विषयक ज्ञान में अधूरे व शून्य प्रायः हैं। इसका समाधान कैसे हो? इसका एक उपाय ऋषि दयानन्द का हिन्दी भाषा में उपलब्ध सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ है जिसका कुछ दिनों में अध्ययन कर धर्म व अधर्म सहित इससे जुड़े प्रायः सभी विषयों का सत्य-सत्य ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। आज का मनुष्य ईश्वर, वेद व जीवात्मा आदि अनेक विषयों का संक्षिप्त सत्य ज्ञान भी नहीं रखता है। इस अभाव की पूर्ति के लिये हम आज ऋषि दयानन्द की एक लघु पुस्तिका ‘आयोद्देश्यरत्नमाला’ से कुछ प्रमुख विषयों का सत्यस्वरूप व सत्य विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। सबसे पहले हम ईश्वर की परिभाषा व विचारों को प्रस्तुत कर रहे हैं। ऋषि दयानन्द बतातें हैं कि ‘ईश्वर, जिसके गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरूप सत्य ही है, जो केवल चेतनमात्र वस्तु तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त, सत्य गुणोंवाला है, और जिसका स्वभाव अविनाशी ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मा आदि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है, उसको ईश्वर कहते हैं।’ ऋषि दयानन्द द्वारा दी गई ईश्वर की यह परिभाषा सर्वथा सत्य है और तर्क एवं युक्तिसंगत है। इस परिभाषा के एक एक शब्द का चिन्तन कर हम इसे ईश्वर में घटा सकते हैं और उसके ध्यान में मग्न होकर उसकी निकटता को प्राप्त होकर सुख, सम्पत्ति, सद्विचार व ज्ञान का लाभ कर सकते हैं।
धर्म और अधर्म के विषय में भी देश व समाज में अनेक भ्रान्तियां हैं। पढ़े लिखे उच्च पदस्थ लोग भी भ्रान्तियों से युक्त हैं। धर्म की सत्य परिभाषा व स्वरूप वह है जो ऋषि दयानन्द जी ने प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार ‘धर्म उसे कहते हैं जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन? पक्षपातरहित न्याय, सर्वहित करना है। जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए एक और मानने योग्य है, उसको ‘धर्म’ कहते हैं।’ अधर्म धर्म के विरुद्ध विचारों, ज्ञान, अकर्तव्य, अनाचार व दूसरों का अपकार करने को कहते हैं। ऋषि दयानन्द लिखते हैं ‘जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा को छोड़ना और पक्षपात-सहित अन्यायी होके बिना परीक्षा करके अपना ही हित करना है, जो अविद्या, हठ, अभिमान, क्रूरतादि दोषयुक्त होने के कारण वेदविद्या के विरुद्ध है और सब मनुष्यों को छोड़ने के योग्य है, वह ‘अधर्म’ कहाता है।’ हम नहीं समझते कि यदि ईश्वर व धर्म विषयक इन तथ्यों व विचारों को बच्चों को पढ़ाया जाता तो उनके व्यक्तित्व व जीवन के विकास में किसी प्रकार की हानि हो सकती थी। जिन लोगों ने देश के बच्चों को सद्विचारों व सद्ज्ञान से दूर किया है, उन्होंने जाने अनजाने में पक्षपात एवं अन्याय किया है। इससे देश व समाज की बहुत बड़ी हानि हुई है। ईश्वर, धर्म व अधर्म आदि का ज्ञान न होने के कारण लोग दुष्कर्म करने में संकोच नहीं करते। ईश्वर से डरते नहीं। उन्हें पता नहीं होता कि वह जो शुभ व अशुभ कर्म करेंगे उसे उन्हें अवश्य ही भोगना पड़ेगा।
परलोक की भी चर्चा हम सुनते रहते हैं परन्तु उसका स्वरूप हमें ज्ञात नहीं है। ऋषि दयानन्द ने वेदों के अपने विशाल अध्ययन के आधार पर परलोक का स्वरूप बताते हुए कहा है कि जिसमें सत्यविद्या से परमेश्वर की प्राप्तिपूर्वक इस जन्म वा पुनर्जन्म और मोक्ष में परमसुख प्राप्त होना है, उसको ‘परलोक’ कहते हैं। अपरलोक क्या है, इसका स्वरूप व स्वभाव बताते हुए ऋषि कहते हैं कि जो परलोक से उलटा जिसमें दुःख-विशेष भोगना होता है, वह ‘अपरलोक’ कहाता है। इसे हम सीमित अर्थों में नरक भी कह सकते हैं।
जन्म व मरण को तत्वतः व यथार्थ रूप में जानना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जन्म वह है जिसमें किसी शरीर के साथ संयुक्त होके जीव (आत्मा जो सब प्राणियों में विद्यमान है) कर्म करने (व फल भोगने) में समर्थ होता है। यही आत्मा का जन्म कहलाता है। मरण क्या है? जीव व आत्मा शरीर को प्राप्त होकर क्रियायें करता है। किसी काल में जीव के शरीर और उस जीव का वियोग हो जाना मरण कहलाता है।
हमारे शरीर में जो चेतन आत्मा है, वही हम हैं। वह आत्मा कैसा है? इस विषय में भी सारा संसार अन्धकार से ग्रस्त है। किसी को नहीं पता कि यह आत्मा किन गुणों व स्वरूप वाला है। ऋषि दयानन्द ने इस पर भी अपने प्रामाणिक व सत्य विचार हमें प्रदान किये हैं। वह लिखते हैं कि जो चेतन, अल्पज्ञ, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान गुणोंवाला तथा नित्य है, वह जीव कहलाता है। इसी क्रम में स्वभाव को जान लेना भी आवश्यक है। स्वभाव किसी वस्तु का जो स्वाभाविक गुण होता है, जैसे की अग्नि में रूप और दाह, अर्थात् जब तक वह वस्तु रहे तब तक उसका वह गुण नहीं छूटता अर्थात उस वस्तु में बना रहता है। किसी वस्तु के गुणों का सदा बने रहना तथा उसमें परिवर्तन न होना, उसका स्वभाव कहलाता है।
सृष्टि किसे कहते हैं? इसका यथार्थ स्वरूप क्या है? इसकी सारगर्भित परिभाषा ऋषि दयानन्द ने एक सिद्धान्त के रूप में दी है। वह बताते हैं कि जो कर्ता (ईश्वर आदि) की रचना (सृष्टि) से कारण (त्रिगुणात्मक प्रकृति) द्रव्य किसी संयोग विशेष (ईश्वर के ज्ञान व बल आदि) से अनेक प्रकार कार्यरूप होकर वर्तमान में व्यवहार करने के योग्य होता है, उसे ‘सृष्टि’ कहते हैं।
देश में मनुष्य के साथ एक जाति सूचक शब्द के प्रयोग की दुष्परम्परा विगत कुछ शताब्दियों से चली आ रही है। इसने हिन्दू समाज को जोड़ा नहीं अपितु तोड़ा है। हिन्दू समाज में परस्पर भेदभाव व पक्षपात को जन्म दिया है। जाति का यह प्रयोग निन्द्य व इसके यथार्थ अर्थ व स्वभाव के विपरीत है। ऋषि दयानन्द बताते हैं कि जाति वह होती है कि जो किसी प्राणी के जन्म से आरम्भ होकर उसकी मृत्यु तक बनी रहती है। वह बदलती व नष्ट नहीं होती है। जाति समाज, देश व विश्व के सभी व्यक्तियों में एक समान रूप से होती व रहती है। यह जाति ईश्वर की बनाई होती है। मनुष्य जाति का निर्माण नहीं कर सकता। मनुष्य जो जाति बनाता है वह किसी कुल व व्यक्ति के नाम पर बनाता है। इसे जाति न कहकर एक कुल के रूप में ही देखना उचित प्रतीत होता है। ऋषि दयानन्द कहते हैं कि मनुष्य, गाय, अश्व और वृक्षादि समूह ईश्वरकृत जातियां हैं। यह मनुष्य, गाय आदि प्राणी समूह रूप में जाति नाम से सम्बोधित किये जाते हैं। संसार के सम्पूर्ण मनुष्य एक मनुष्य जाति के हैं। यह ईश्वर कृत है। इसको जाति का नाम देना अज्ञान व भ्रान्ति के कारण से है।
वेद का नाम लेने पर ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद नाम का स्मरण होता है। वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है। अंग्रेजी में इसे नौलेज या विज्ञान कहते हैं। वेद वस्तुतः अपने इन अर्थों को सार्थक सिद्ध करते हैं। वेद में कोई कहानी व किस्सा नहीं है जैसे कि मत-पन्थों के ग्रन्थों में हैं। वेद में काल्पनिक व अविश्वसनीय बातें भी नहीं है। ऋषि दयानन्द ने कहा है कि वेद वह ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में जगत-स्रष्टा ईश्वर ने अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा की आत्माओं में प्रविष्ट व स्थापित किया था। वेद संस्कृत में हैं। इससे संस्कृत ईश्वर प्रदत्त और ईश्वर की अपनी भाषा सिद्ध होती है। वेद के सभी शब्द ईश्वर के बनाये व प्रयोग में लाये जाने वाले शब्द हैं। ईश्वर ने वेदों का ज्ञान वेदों के सत्य अर्थों सहित दिया था। उन्हीं अर्थों का प्रचार व प्रसार पीढ़ी दर पीढ़ी ऋषि, मुनि व विद्वान करते आ रहे हैं। वेद नाशरहित ज्ञान है। वेदों में तृण से लेकर ईश्वर तक का सत्य व यथार्थ ज्ञान है। वेदाध्ययन से मनुष्य एक सच्चा ज्ञानी, योगी, ऋषि व महर्षि बनता है। वेदों का ज्ञान मनुष्य मात्र अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व अतिशूद्र सबके लिये है। इसे स्त्री व शूद्र सभी पढ़ सकते हैं। किसी मनुष्य के वेद पढ़ने, सुनने व शंका समाधान करने का निषेध नहीं है। वेद पढ़ने वाला मनुष्य व स्त्री देव व देवी होती है वा वेद पढ़ कर बन जाते हैं। वेद विहीन मनुष्य अज्ञान व अविद्या से ग्रस्त होकर अन्धविश्वासों में फंसकर अधर्म व अनुचित कामों को करते हंै। संसार में हम देख रहे हैं कि बहुत से मत व अनुयायी हिंसा का प्रयोग करते हैं। वह छल, बल, लोभ व गुप्त रीति से लोगों धर्मान्तरण आदि अनेक कार्यों को करके दूसरों को हानि पहुंचाते हैं। वेदाध्ययन करने वाले मनुष्य इन निन्दनीय कार्यों को न करते हैं और न ही करने देते हैं। इसी लिये वेद से पुष्ट नियम है कि मनुष्य को सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करना चाहिये। सत्य को मानना और मनवाना चाहिये। असत्य को छोड़ना व छुड़वाना चाहिये।
ऋषि दयानन्द ने ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ नाम से एक लघु ग्रन्थ की रचना की है। लगभग एक घंटे में इसे पढ़ा जा सकता है। इसमें धर्म व ईश्वर, कर्म व प्रारब्ध संबंधी 100 विषयों को परिभाषित किया गया है। अपने विषय की इतनी लाभकारी पुस्तक संसार में दूसरी नहीं है। अतः सबको इसका अध्ययन व आचरण करना चाहिये। इससे उनको लाभ होगा। प्रत्येक सांसद, विधायक, पार्षद सहित सर्वोच्च राज्याधिकारियों को इसे पढ़ना चाहिेये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य