पैदल अरब देशों में जाकर आर्यसमाज स्थापित करने वाले ऋषिभक्त पंडित रुचिराम आर्योपदेशक
ओ३म्
आर्यसमाज में आर्योपदेशक पं. रुचिराम जी ऐसे ऋषिभक्त प्रचारक हुए हैं जिन्होंने पैदल ही अरब देशों में जाकर वहां जो देखा, सुना व अनुभव किया, उसका सजीव चित्रण अपनी एक पुस्तक ‘अरब में मेरे सात साल’ में किया है। हमारे मन में विचार आया कि हम इनके बारे में कुछ जानकारी प्रस्तुत करें। हमारी यह जानकारी श्री लाजपतराय अग्रवाल जी द्वारा प्रकाशित उपर्युक्त पुस्तक के आधार पर है। लाजपतराय जी ने इस पुस्तक का प्रकाशन जून सन् 2007 में किया था। यह इस पुस्तक की उनके द्वारा प्रकाशित द्वितीय आवृत्ति थी। इसके बाद इस पुस्तक का प्रकाशन सत्यधर्म प्रकाशन द्वारा भी किया गया है। यह पुस्तक 222 पृष्ठों की है। पुस्तक के आरम्भ में श्री लाजपत आर्य जी ने ‘विशेष द्रष्टव्य’ शीर्षक से कुछ शब्द लिखे हैं जिसमें उन्होंने कहा है ‘पूरे अहले अरब के हालात एवं एक ऐसे निर्भीक आर्योपदेशक की मार्मिक कहानी जो दिल को छू जाती है। जिसके पास एक पैसा भी नहीं था और जिसका इस भयानक पैदल यात्रा के दौरान सिवाय परमेश्वर के अन्य कोई रक्षक न था। वह एक उच्च आदर्श को सामने रखते हुए अनेकों मुसिबतों का सामना करते हुए किस प्रकार ‘‘काबा का हज्ज” करता है? और सारे अरब में पैदल घूम-घूम कर वैदिक धर्म की दुन्दुभी बजाता है? …… वर्तमान प्रचारकों के लिए यह एक शिक्षाप्रद उदाहरण है। –लाजपतराय अग्रवाल’
पं. रुचिराम आर्योपदेशकजी ने इस पुस्तक के समर्पण में जो पंक्तियां लिखी हैं उन्हें भी महत्वपूर्ण जानकर हम प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं ‘मेरी इस यात्रा की प्रेरणा का श्रेय मेरे पूज्य आचार्य परमहंस परिव्राजक ‘‘श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज” को है। केवल प्रेरणा ही नहीं, आप अरब के शहरों में मेरे साथ विस्तृत पत्र व्यवहार करके अपनी अमूल्य सम्मति भी मुझे भेजते रहे, इसलिए यह श्रद्धा का फूल ‘‘अरब में मेरे सात साल” नामक पुस्तक आपके ही श्री चरणों में सादर समर्पित करता हूं।’
श्री लाजपतराय अग्रवाल जी ने सम्पादक एवं समीक्षक के रूप में भी कुछ शब्द पुस्तक में दिये हैं। उनके कुछ शब्द महत्वपूर्ण होने से प्रस्तुत हैं। वह लिखते हैं ‘श्री पण्डित रूचिराम जी आर्योपदेशक जिन्होंने चिरकाल में अहले अरब के अन्दर सात वर्ष रह कर वैदिक धर्म के प्रचार की धूम मचा दी थी। प्रस्तुत पुस्तक पुराने उपदेशकों की लगन का एक ज्वलन्त उदाहरण है। मुझे तो यहां आर्य जगत के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ महारथी, तर्क शिरोमणि, कुरान-पुराण मर्मज्ञ ‘श्री महात्मा अमर स्वामी जी महाराज’ की ये पंक्तियां याद आती हैं कि ‘पुराने आर्य नेताओं ने अपने घरों को उजाड़ कर आर्यसमाज को बनाया था परन्तु नये आर्यसमाजी नेता आर्यसमाज को उजाड़ कर अपने घरों को बना रहे हैं।’ (स्वामी अमर स्वामी जी का) यह वाक्य हमें कुछ शिक्षा दे रहा है जिस पर चलना आवश्यक है। अगर आप आर्यसमाज का प्रचार एवं प्रसार चाहते हैं तो आपको (आर्यसमाज को) भी ‘श्री पण्डित रूचिराम जी आर्योपेदशक’ की तरह निष्ठावान, त्यागी, तपस्वी उपदेशक तैयार करने होंगे। परन्तु हाय रे दुर्भाग्य! न अब पण्डित रूचिराम जी जैसे त्यागी, तपस्वी और लगनशील प्रचारक ही हैं और न ही ‘श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज’ जैसे निर्भीक संन्यासी (गुरु) ही हैं।
किसी भी पुस्तक का लेखकीय निवेदन महत्वपूर्ण होता है। पं. रुचिराम जी ने इसके अन्तर्गत अपने मन की जो बातें कहीं हैं उन्हें भी प्रस्तुत करना उचित प्रतीत होता है। वह लिखते हैं ‘ऐसे समय में जब कि आर्यसमाज का डंका देश के कोने-कोने में बज रहा है और हिन्दू मात्र इसके अधिकाधिक प्रचार की आवश्यकता अनुभव कर रहा है, हमें उचित है कि विदेशों में भी इसके प्रचार की ओर ध्यान दें। मैंने सात वर्ष पैदल चलकर सारे अरब में वैदिक धर्म का प्रचार किया और अनेकों स्थानों पर आर्यसमाजें स्थापित कीं। इस लम्बे प्रचार के बाद मैं अब यह कह सकता हूं कि आर्यसमाज के प्रचार के लिये अरब और अन्य इस्लामी देशों में एक विस्तृत क्षेत्र विद्यमान है, जहां आर्यसमाज का प्रचार होना चाहिये।
इस पुस्तक में मैंने यह बतलाया है कि हम किस प्रकार अरब आदि देशों में प्रचार कर सकते हैं और वहां जाने आने के मार्ग कौन-कौन से हैं। मैंने जो कुछ प्रचार वहां किया है उसे केवल अंकुर स्वरूप ही समझना चाहिये। मैं अरब के किसी एक शहर में बैठ कर प्रचार करना नहीं चाहता था। मेरी यात्रा का अभिप्राय ही केवल यह देखना था कि हम किस प्रकार अरब की भूमि में वैदिक धर्म का प्रचार कर सकते हैं? जहां-जहां मेरा प्रभाव पड़ चुका है, वहां-वहां आर्य समाजें स्थापित हो चुकी हैं, वहां भी भारतवर्ष से उपदेशकों का जाना आवश्यक है। मेरी इस लम्बी यात्रा के दौरान अनेकों घटनाएं ऐसी घटी कि जिनमें व्यक्ति बड़ी आसानी से उलझ कर रह सकता है जिनके कारण वह अपने असली उद्देश्य को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता।
हम प्रचारकों को काम, क्रोध, लोभ, मोह से हमेशा सावधान रहना चाहिये। भला इस संसार में यह किसे अपनी ओर आकर्षित नहीं करते? परन्तु मैं इन सबको तिलांजली देते हुए अपने मुख्य उद्देश्य पर हमेशा आरूढ़ रहा और परमपिता परमात्मा ने सदैव मेरी रक्षा की। अब आर्यप्रचारकों और सभाओं का धर्म है कि वे अरब में प्रचार के कार्य में मेरा हाथ बटावें या किन्हीं उपदेशकों को तैयार करके वहां वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार करें। मैं जब से अरब से भारतवर्ष वापिस लौटा हूं तभी से मेरी यह प्रबल इच्छा रही है कि एक बार फिर अरब में जाकर उस पौधे को पुनः सीचूं जिसका बीज मैंने पिछले सात वर्षों में वहां की भूमि में डाला है।
इधर पिछले कई मास के अनुभव के पश्चात् मुझे यह ज्ञात हुआ है कि यदि मैं इस कार्य में सहायता के लिये किसी व्यक्ति विशेष अथवा सभा पर निर्भर रहता तो मेरी यह इच्छा न जाने कब पूर्ण होती? (शायद कभी न होती-मनमोहन) इसलिये मैंने यह निश्चय कर लिया है कि पहले की तरह केवल ईश्वर पर भरोसा रखकर निकट भविष्य में अरब की भूमि पर वैदिक धर्म के प्रचार के लिये पुनः जाऊंगा। (श्री लाजपतराय जी लिखते हैं कि परिस्थितियोंवश पंडित जी की यह इच्छा पूरी न हो सकी अर्थात् वह पुनः अरब देशों की यात्रा पर नहीं जा सके।) यह ध्यातव्य है कि पं. रुचिराम जी ने यह निवेदन नवम्बर, 1938 में दिल्ली में लिखा था।
आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान डा. भवानीलाल भारतीय जी ने पं. रुचिराम आर्योपदेशक का संक्षिप्त परिचय दिया है। उनके अनुसार अरब देशों में वैदिक धर्म के प्रचारक पं. रुचिराम जी का जन्म मियांवाली (पाकिस्तान) में 1 जनवरी, 1905 को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री श्यामदास था। रुचिराम की शिक्षा डी.ए.वी. हाई स्कूल लाहौर में हुई जहां से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण कर वे दयानन्द उपदेशक विद्यालय गुरुदत्त भवन लाहौर में प्रविष्ट हुए। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी की प्रेरणा से 1929 में उन्होंने अरब देशों में वैदिक धर्म के प्रचार हेतु यात्रा आरम्भ की। स्थल मार्ग से ईरान की खाड़ी के तटवर्ती मस्कत, दुबई, सऊदी अरब तथा अदन की यात्रा पूरी कर 1936 में वे भारत लौटे। उनका यह यात्रा विवरण ‘अरब में सात साल’ शीर्षक से 1938 में प्रकाशित हुआ। मूल पुस्तक उर्दू में लिखी गई थी जिसका हिन्दी अनुवाद श्री ब्रह्मानन्द ने किया था। इस पुस्तक का संक्षिप्त रूप गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ द्वारा 2015 विक्रमी में प्रकाशित किया गया। पंडित रुचिराम जी के विषय में यह जानकारी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक इससे लाभान्वित होंगे। हमने पुस्तक के अनुवादक श्री ब्रह्मानन्द जी का परिचय ढूंढने का प्रयत्न किया परन्तु इसमें हम सफल नहीं हुए। इसी क्रम में यह भी बता दें कि पं. रुचिराम आर्योपदेशक की स्मृति में एक गुरुकुल दक्षिण प्रदेशों के किसी स्थान पर संचालित किया जाता है, ऐसा हमें स्मरण आ रहा है।
हमें कल वयोवृद्ध आर्य विद्वान पं. इन्द्रजित् आर्य, यमुनानगर-हरयाणा ने फोन पर पं. रुचिराम आर्योपदेशक जी का चित्र उपलब्ध कराने के लिये कहा। पं. रुचिराम जी की ‘अरब में मेरे सात साल’ पुस्तक हमारे पास है। हमने उन्हें कहा कि यदि पुस्तक में चित्र हुआ तो उसे आपको व्हटशप कर देंगे। पुस्तक मिलने पर उनका चित्र पुस्तक में उपलब्ध नहीं हुआ। कुछ देर बाद हमने फेसबुक के मित्रों को पं. रुचिराम आर्योपदेशक जी का चित्र उपलब्ध कराने का अनुरोध किया। हमारे मित्र श्री निखिल आर्य जी, दिल्ली ने हमें कीर्तिशेष आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक जी द्वारा प्रकाशित पं. रुचिराम जी की पुस्तक ‘अरब में मेरे सात साल’ हमें प्रेषित कर दी। इसमें भी पंडित जी का चित्र नहीं था। आज कुछ देर पहले हमारे सुहृद मित्र ऋषिभक्त आर्यविद्वान श्री भावेश मेरजा जी ने हमें पं. रुचिराम आर्योपदेशक का भव्य चित्र प्रेषित कर हमारी आवश्यकता पूरी कर दी। इस चित्र को हमने पं. इन्द्रजित्देव जी को प्रेषित कर दिया है। ऐसा करते हुए हमारे मन में विचार आया कि पं. रुचिराम जी के जीवन पर कुछ विचार अपने मित्रों के ज्ञानवर्धन हेतु प्रस्तुत करें। उसी का परिणाम यह लेख है। हम श्री भावेश मेरजा जी का पंडित रुचिराम जी का चित्र भेजने के लिए हृदय से आभार व्यक्त करते हैं। वह आर्यसमाज के गौरव हैं। ऋषि दयानन्द के अनन्य भक्त हैं। हम उनकी ऋषि भक्त को भी नमन करते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठकों को यह लेख उपयोगी होगा। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य