गाय आदि पशुओं की हत्या का अभिशाप देश को भोगना पड़ता है
ओ३म्
संसार में मनुष्य मुख्यतः दो प्रकार के कर्म करता है। यह कर्म पाप व पुण्य कहलाते हैं। पुण्य कर्म सभी मनुष्यों के लिये करणीय होते हैं तथा पाप कर्म उपेक्षणीय व अकरणीय होते हैं। पाप कर्म करने से मनुष्य निन्दा का पात्र बनता है और पुण्य कर्मों को करने से यशस्वी व प्रशंसा का भागी होता है। पुण्य कर्मों का फल सुख व कल्याण होता है तथा पाप कर्मों का फल दुःखों सहित दुर्भिक्ष, मृत्यु व भय होता है। आजकल पूरे विश्व के मनुष्यों को करणीय व अकरणीय कर्मों का ज्ञान नहीं हैं। विश्व में लोग पुण्य कर्मों सहित पाप भी अधिक मात्रा में करते हैं जिसके परिणाम से उनको दुःख मिलना स्वाभाविक है। मनुष्य जो कर्म करता है वह अपने ज्ञान व स्वभाव के अनुरूप ही करता है। मनुष्य को सद्ज्ञान प्राप्त करना होता है जो बिना सुने, पढ़े तथा चिन्तन मनन किये प्राप्त नहीं होता। सद्ज्ञान प्राप्ति का सबसे मुख्य ग्रन्थ ईश्वर प्रदत्त ज्ञान चार वेद हैं। वेद एवं समस्त वैदिक साहित्य संस्कृत भाषा में है। लाखों वर्षों तक संस्कृत ही पूरे विश्व की एकमात्र भाषा रही है। वेदों का सूर्य लुप्त होने पर संस्कृत भाषा अप्रचलित हो गई तथा देश देशान्तर में संस्कृत भाषा का स्थान संस्कृत शब्दों व उसके विकृत रूपों, अपभ्रंशों आदि से युक्त भाषाओं ने ले लिया।
हमारे देश आर्यावर्त भारत में सृष्टि की आदि से ऋषि परम्परा रही है। ऋषि वेदों के अध्ययन सहित धर्म का पालन, ईश्वर का ध्यान व चिन्तन तथा यज्ञों का सेवन करते थे। सभी ऋषि तपस्वी, पुरुषार्थी, समाधि अवस्था को प्राप्त, पूर्ण व आदर्श शाकाहारी तथा ब्रह्मचारी एवं आत्म ज्ञानी होते थे। इन्होंने सामान्य जनों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए तथा वेदों के रहस्यों को समझाने के लिये उपनषिदों, दर्शनों सहित मनुस्मृति व संस्कार आदि संबंधी अनेक अन्य ग्रन्थों की रचना की है। इनसे ग्रन्थों का अध्ययन कर मनुष्य अपने धर्म व आचरण का ज्ञान प्राप्त कर दुःखों से मुक्त तथा सुख व शान्ति से युक्त हो सकता है। वैदिक परम्परा में सर्वसम्मत रूप से माना जाता है कि ज्ञानी व्यक्ति महान सुखों से युक्त होता है। जो व्यक्ति ज्ञानी होता है वह अज्ञानियों व अल्प ज्ञानियों से अधिक सुखी होता है। ज्ञान वह नहीं जो आजकल स्कूलों में पढ़ाया जाता है अपितु वह है जो वेद, उपनिषद व दर्शन आदि ग्रन्थों में है। इसके साथ ही सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि तथा आर्याभिविनय आदि ग्रनथ भी विद्या के ग्रन्थ हैं। ऋषि दयानन्द का जीवन चरित्र भी एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं जिससे हम अपने कर्तव्य की शिक्षा व प्रेरणा ले सकते हैं। आर्यों व हिन्दुओं सहित देश के सभी लोगों ने स्वाध्याय करना छोड़ दिया है। इस कारण से लोग सद्ज्ञान से वंचित हैं। सद्ज्ञान का न होना ही हमारे सभी दुःखों का कारण है। आज देश मे जो महामारी आई है उसका कारण भी मनुष्यों का कुछ व अधिकांश सीमा तक असद् व धर्म विरुद्ध आचरण व कर्म ही हंै। हमने मनुष्य जन्म लेकर भी ईश्वर तथा आत्मा के सत्यस्वरूप को नहीं जाना है और न ही मनुष्य के कर्तव्यों व उद्देश्यों को जाना व समझा है। यह भी हमारे दुःखों में वृद्धि का कारण बना है।
ईश्वर ने इस संसार तथा मनुष्यादि सभी प्राणियों को बनाया है। यह सब प्राणी चेतन जीवात्मायें हैं जो अपने संचित प्रारब्ध के अनुसार विभिन्न योनियों में अपने पूर्वजन्मों के अवशिष्ट व अभुक्त कर्मों का फल भोगने के लिये परमात्मा द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। इनका प्रयोजन मनुष्यों को क्षुधा तृप्ति नहीं है। भूख की शान्ति व शरीर को बल प्रदान करने के लिये परमात्मा ने अनेक प्रकार के अन्न, स्वास्थ्यवर्धक फल व मेवे तथा अनेक प्रकार की वनस्पतियों व स्वादिष्ट पदार्थों को बनाया है। गोदुग्ध भी मनुष्य की क्षुधा को शान्त करने के साथ आरोग्य एवं बल प्रदान करता है। यदि मनुष्य इन पशुओं को अपनी जिह्वा के स्वाद या किसी भी कारण से मारता व उनका भोजन करता है तो वह पुण्य नहीं अपितु घोर पाप कर्म करता है। वह उन गो, बकरी, भेड़, मछली आदि अनेकानेका प्राणियों सहित परमात्मा का भी अपराधी बन जाता है। इन अपराधों का उसे जन्म जन्मान्तरों में दण्ड मिलता है। जिस प्रकार से हम इस जन्म में अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का फल पाते हैं इसी प्रकार इस जन्मों के कर्मों के अनुसार कालान्तर में हमारी व सभी प्राणियों की जीवात्माओं का जन्म होगा, कर्मों के अनुसार ही उनको मानव व अन्य प्राणियों के देह, शरीर व सुख दुःख प्राप्त होंगे और उनका पतन व उन्नति होगी।
हमें मार्गदर्शन के लिये परमात्मा प्रदत्त ज्ञान वेद तथा ईश्वरभक्त ऋषियों के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति आदि का पाठ करना चाहिये और इसके अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करना चाहिये। इसी में मनुष्य जीवन का कल्याण है। यह बात काल्पनिक व भावनात्मक नहीं अपितु जन्म व मरण संबंधी सूक्ष्म विवेचन व अनेक अनुभवों के अनुरूप व हितकारी है। इसकी उपेक्षा करने से मनुष्य को हानि उठानी पड़ती है। जिस प्रकार माता, पिता तथा आचार्य ज्ञान देते हैं, पथ-प्रदर्शन करते हैं तथा अपनी सन्तानों व शिष्यों का कल्याण चाहते हैं, उसी प्रकार से परमात्मा, ऋषि मुनि व उनके ग्रन्थ तथा धर्म-प्रचारक आदि श्रेष्ठजन जनहित व लोकोपकार के लिये लोगों को सद्ज्ञान पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं। यही मनुष्य धर्म है और इसी से जीवात्मा की उन्नति होती है। अतः पशु-पक्षियों की हत्या कर उनका मांसाहार करना ईश्वर के कार्य में बाधा डालने वाला होने से पाप है जिसका परिणाम देर-सबेर दुःख के रूप में मिलना निश्चित है।
मनुष्य मांसाहार के लिए जिन निष्पाप, मूक, लाभकारी व हितकारी पशुओं की हत्या करता है उन पशुओं को वही दुःख प्राप्त होता है जैसा कि मनुष्य की हत्या किये जाने पर होता है। जिसकी हत्या होती है वह हत्या करने वालों को कोसता है व उन्हें श्राप देता है। उनका समूल नाश व जन्म जन्मान्तरों तक उसकी अधोगति तथा उनके नरक में जाने की परमात्मा से प्रार्थना करता है। उनका ऐसी प्रार्थना करना व अभिशाप देना उचित होता है। परमात्मा भी मनुष्यों की हृदयस्थ आत्मा व मस्तिष्क में निरन्तर पशुओं को न मारने व उनकी रक्षा करने की प्रेरणा करता है परन्तु पापी मन में ईश्वर की प्रेरणा सुनना व समझना बन्द हो जाता है। ऐसे व्यक्ति की अधोगति व विनाश होना निश्चित होता है। जब मनुष्य सामुहिक रूप से पाप करता व कराता है तो दण्ड भी सामुहिक रूप से मिलना स्वाभाविक होता है। अतः मांसाहार की प्रवृत्ति तथा इसके लिए निर्दोष व मूक पशुओं को मारने से मनुष्यों को सामुहिक दण्ड के लिये कई बार महामारियां आया करती हैं। मनुष्य ऐसा होने पर विचलित हो जाता है परन्तु अपनी प्रकृति, स्वभाव, आचरण व कर्मों में सुधार नहीं करता। यही आज के युग की सबसे बड़ी विडम्बना है। वर्तमान में भी हम एक महामारी से संघर्ष कर रहे हैं। इसका समाधान अन्य सभी उपायों के साथ एकयह भी हो सकता है कि सारा विश्व मांसाहार न करने का संकल्प व व्रत लें। ऐसी प्रतिज्ञा करने से वर्तमान एवं भावी महामारियों पर निश्चय ही प्रभाव पड़ेगा। नास्तिक बुद्धि वाले मनुष्यों को कभी हितकर बातें समझ में नहीं आती। वह जन्म जन्मान्तरों में अपने सुखों की हानि तो करते ही हैं, अन्य मनुष्यों को भी अपने साथ दुःखी व सन्तप्त करते हैं। ऐसा ही होता आजकल दीख रहा है।
परमात्मा ने हमें बनाया है और हमारे भीतर हमारे हृदय, मन व मस्तिष्क में धर्म, प्रेम, स्नेह, करूणा तथा दया सहित परोपकार आदि गुणों तथा दूसरों की सेवा करने की भावनाओं को भी उत्पन्न भी किया है। हमें इन गुणों का विकास करना चाहिये और मांसाहार में इन गुणों के विरुद्ध हम जो व्यवहार व भाव रखते हैं, उनका त्याग कर देना चाहिये। मनुस्मृति में सत्य कहा गया है कि जो मनुष्य धर्म की रक्षा करता है अर्थात् सद्गुणों से युक्त व्यवहार करता है, धर्म भी उन मनुष्यों की रक्षा करता है। जो मनुष्य वेदाचरण व धर्म की रक्षा नहीं करता धर्म भी उसकी रक्षा नहीं करता। ऐसा मनुष्य अधर्माचरण करने से महान दुःखों और विनाश को प्राप्त होता है। यह सत्य है, इसमें किंचित भी मिथ्या नहीं है। यही कारण था कि हमारे पूर्वज ऋषि, मुनि, योगी तथा ईश्वर-प्रत्यक्ष किये हुए विद्वान अपने जीवन को पूर्ण दया, करूणा व हिंसा से मुक्त रखकर आचरण व व्यवहार करते हैं। हम सब अपने पूर्वजों की योग्य सन्तति तभी कहे जा सकते कि जब उनके जैसा ही धर्म का पालन व व्यवहार करें। यदि हम उनके जीवन व कार्यों सहित शिक्षाओं से प्रेरणा ग्रहण नहीं करेंगे तो हमारा पतन होना निश्चित है और निश्चय ही हम दुःखों के भागी बनेंगे।
वर्तमान समय में भारत सहित पूरे विश्व में गोहत्या, बकरी, भेड़ आदि अनेक हितकारी एवं उपयोगी पशुओं सहित वनीय एवं समुद्रीय जीव-जन्तुओं की हत्या मांसाहार के लिये की जाती है। यह घोर पाप है। इसके कारण समय-समय पर प्राकृतिक आपदायें भूकम्प, अनावृष्टि, अतिवृष्टि एवं महामारियां आती हैं। यह एक प्रकार से ईश्वर व उसकी प्रकृति का मानव को विचार कर अपने आचरण को धर्मानुसार करने का संकेत होता है। आश्चर्य है कि मानव इन महत्वपूर्ण प्रश्नों व उपायों पर विचार ही नहीं करता। आजकल भी ऐसा ही किया जा रहा है। धन्य हैं वह लोग जो ईश्वर व जीव सहित प्रकृति के सत्यस्वरूप को जानते हैं और वेद व ऋषियों की शिक्षाओं के अनुसार आचरण करते हैं। ईश्वर का ध्यान तथा आरोग्य व रोगों से सुरक्षित रहने के लिये अग्निहोत्र यज्ञ आदि उपाय भी करते हैं। हमें आपदा व महामारियों के एक कारण मूक, लाभकारी, ईश्वरीय व्यवस्था का पालन करने वाले पशु पक्षियों आदि की रक्षा का व्रत लेना चाहिये और मांसाहार के विरुद्ध भी प्रतिज्ञा करनी चाहिये। हम समझते हैं कि इससे विश्व में सुख व शान्ति का वातावरण बनेगा और संसार के सभी प्राणी एक दूसरे का हित करते हुए ईश्वर की व्यवस्था का पालन कर अपने जीवन को उन्नत, सुखी व कल्याणमय कर सकेंगे। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य