तर्पण
उठो धृतराष्ट्र! दुर्योधन का तर्पण कर दो
उसकी आँखें अब उसको अर्पण कर दो,
वटवृक्ष की जड़ों-सी तुम्हारी महत्त्वकांक्षाएँ
जिनकी मज़बूत जकड़, कर गई उसे जड़।
आँखे उसकी थी पर अभीप्सा तुम्हारी थी
यही दृष्टिहीनता तो उस पर पड़ी भारी थी,
अन्धतम में घिर अनैतिक लक्ष्य था साधा
अनर्थ कर गए बनकर उसके भाग्यविधाता।
झूठे प्रवचनों, खोखली मजबूरियों से उसे छल
तुमने दिया उसका संपूर्ण मनोमष्तिष्क बदल,
बदहवास अंध स्वप्नों के पीछे भागता वो रहा
आज भी भाग रहा देखो! खुद का वह कहाँ रहा।
तुम्हारी कुंठित सोच ने ही बनाया उसे बुरा
जी लेता अपनी ज़िंदगी बनकर सोना खरा,
तुम्हारे सपनों की ज्वाला में पल-पल जल रहा
बाँध पट्टी आँखों पर अंधपथ पर वह चल रहा।
तुम्हारी उच्चाकांक्षाओं का बीज पेड़ बन गया
उसके संपूर्ण अस्तित्व को ही बौना कर गया,
देखो! ब्रह्मराक्षस-सा हर जगह नज़र आएगा
जीवन से हार कहीं अंधकुंड में छिप जाएगा।
हे धृतराष्ट्र! महत्वकांक्षाओं का तर्पण कर दो
दुर्योधन की पीड़ाओं का अब उन्मूलन कर दो,
अधिकार है उसे अपनी आँखों से सपने देखने का
जीने दो उसे! बंधनमुक्त कर, अभयदान कर दो।
— अनिता तोमर ‘अनुपमा’