माँ
रमली को आज आने में देर हो गई । हरी दारू के नशे में अनाप-शनाप बक रहा था । बेटी बुधिया को दो-तीन तमाचे जड़ चुका था । वह कोने में सिसक रही थी । रमली के आते ही हरि बरस पड़ा – “आ गई देवी जी …इतनी देर कैसे हुई आज ..? मालूम है ना आज बाजार है.. खाना कौन बनाएगा तेरा बाप..?” अचानक हुए हमले से रमली काँप उठी । कैसे कहती की सेठानी के यहाँ मेहमान आने से काम बढ़ गया । हरि को समझाते हुए कहती है -” कभी-कभी काम ज्यादा बढ़ जाते हैं …मछली कहाँ रखे हो… मैं खाना जल्दी बना रही हूँ, आप थोड़ा आराम कीजिए ..”
“साली मुझे पाठ पढ़ाएगी…” और गुस्से में रमली को डंडे से पीटने लगा । माँ को पीटते देख बुधिया आकर हरि को धक्का देकर माँ को बचा लिया । रोते-रोते कहती है -” चलो हम कहीं भाग जाते हैं माँ… बाबू आपको रोज पीटते हैं… मुझे पीटते हैं …अब नहीं रहेंगे माँ… चलो माँ..” माँ बेटी रोने लगी । रमली समझाते हुए कहती है -” नहीं गुड़िया …हम कहीं नहीं जाएँगे गरीब की औरत सबकी भौजाई होती है… मर्द कैसा भी रहे इज्जत तो सलामत रहती है । मत रोना बेटी सब ठीक हो जाएगा ” रमली ने बुधिया को बाहों में भर लिया । माँ के बाहों में बुधिया खुद को सुरक्षित महसूस कर रही थी ।
— भानुप्रताप कुंजाम “अंशु”