वैदिक धर्म की अनुयायी आर्यसमाज सबसे भिन्न आदर्श धार्मिक संस्था हैं
ओ३म्
आर्यसमाज एक सच्ची धार्मिक एवं सामाजिक संस्था है। इसके साथ ही यह सबसे अधिक देशभक्त संस्था भी है। इसकी विचारधारा में ही कहा गया है कि पृथिवी मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं। आर्यसमाज इस सिद्धान्त को भी मानता है कि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होते हैं। जननी का अर्थ जन्म देने वाली माता तथा जन्मभूमि का अर्थ यहां हमारा देश भारत है। यह बातें आपको अनेक मतों व सम्प्रदायों के धर्मग्रन्थों व विचारधारा में नहीं मिलेंगी अपितु इसके विपरीत विचार देखने व पढ़ने को मिलेंगे। ऐसे मत भी हैं जो कहते हैं कि हम आर्य व हिन्दू उनके लिये वध करने योग्य हैं। ऐसी स्थिति में आर्यसमाज का स्थान मानवतावादी तथा आदर्श वैचारिक संगठन का रूप लिये हुए है। आर्यसमाज के इतिहास पर दृष्टि डाले तो देश में पाखण्ड निवारण, समाज सुधार तथा देश को आजाद कराने का मन्त्र आर्यसमाज के संस्थापक ही ने दिया था तथा इसे अपने जीवन में चरितार्थ भी किया।
सारा विश्व ऋषि दयानन्द का ऋणी है। उन्होंने अन्धविश्वास व पाखण्ड दूर करने सहित समाज सुधार का जो कार्य आरम्भ किया था उसका लाभ संसार के सभी लोगों तक किसी न किसी रूप में पहुंचा है। सभी मतों ने अपने मत को तर्क व युक्ति के आधार पर ढालने का प्रयत्न किया है परन्तु वह इसमें सफल हुए या नहीं, यह आर्यसमाज के विद्वान व स्वाध्यायशील सदस्य भली प्रकार से जानते हैं। आज का युग एक अजीब सा है जिसमें सब लोगों को कक्षा 10 तक की भी अनिवार्य शिक्षा देने की व्यवस्था नहीं है। कुछ मत व राजनीतिक दल अपने मत के अनुयायियों को अशिक्षित रखना ही पसन्द करते हैं जिससे उनके स्वार्थ अधिक मात्रा में सिद्ध हो सकें। इस कारण अशिक्षितों सहित शिक्षित लोग भी ज्ञानयुक्त सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय से वंचित हैं। अनुमान कीजिये कि ज्ञान तो सबके लिय सदैव हितकर ही होता है। यह सत्य सिद्धान्त है कि जितना सुख सत्य ज्ञान में है उतना सांसारिक भौतिक पदार्थों में नहीं है। ऐसा होने पर भी कुछ लोग अपने अनुयायियों को दूसरे मत के ग्रन्थ पढ़ने की स्वतन्त्रता प्रदान नहीं करते, उनको प्रेरणा करने की बात तो बहुत दूर है। इससे वह सब लोग सद्ज्ञान से वंचित रह जाते हैं और मतों के आचार्यों के स्वार्थसिद्धि के साधन बनते हैं। इसके विपरीत आर्यसमाज अपने अनुयायियों सहित अन्य सभी लोगों को सत्य के ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने की प्रेरणा करता है। अविद्या का नाश तथा विद्या की उन्नति करने की भी प्रेरणा करता है। वह यह भी प्रचार करता है कि सभी मनुष्यों को अपने सब काम, धर्म का चयन व आचरण, ईश्वर की उपासना तथा अन्य सभी कार्य धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहियें। आर्यसमाज ईश्वर तथा आत्मा के सत्यस्वरूप की घोषणा करता है और उसके लिये संसार के किसी भी मत के आचार्य और अनुयायी से चर्चा व संवाद करने के लिये तत्पर है परन्तु ऐसा लगता है कि संसार के लोग सत्य को जानना नहीं चाहते और न ही सत्य की शरण में आना चाहते हैं। इस कारण से विश्व का मनुष्य समाज मत, पन्थ व सम्प्रदायों में विभाजित है और एक मत दूसरे मत के लिये भय तथा सीमित अर्थों में आतंक का कारण बना हुआ है। इससे मुक्ति तथा विश्व में शान्ति का एकमात्र साधन यह है कि लोग साम्प्रदायिकता से रहित चार वेदों की शिक्षाओं को अपनायें और ऐसा करके ‘विश्व बन्धुत्व’ तथा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना का साकार करें। विश्व शान्ति और मनुष्यों के अधिकतम सुख के लिए यही संसार के प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य सिद्ध होता है।
आर्यसमाज सत्य को स्वीकार करता है तथा संसार में इसका प्रचार भी करता है। अन्य किसी धार्मिक संस्था में हम यह गुण नहीं पाते। अन्य धार्मिक संस्थायें तो अपने अनुयायियों व आर्यसमाज की शंकाओं का समाधान करने के लिये भी तत्पर नहीं है। उन्हें नहीं पता कि जब परमात्मा ने सृष्टि को उत्पन्न किया तो सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि कर एक नहीं अपितु अनेक युवा स्त्री पुरुषों को जन्म दिया था और उन्हें वेद ज्ञान भी दिया था। कुछ मत मानते हैं कि परमात्मा ने एक स्त्री व एक पुरुष को बनाया था। इस पर ऋषि दयानन्द की सबसे बड़ी आपत्ति है कि इन माता-पिता के बच्चे आपस में भाई व बहिन हुए। फिर इनसे सृष्टि कैसे चली? यदि चली तो यह आरम्भ में ही अनैतिक कर्म हुआ। वैदिक धर्म की मान्यता इस दोष से रहित है। यही सत्य भी है। परमात्मा ने जब मनुष्यों को उत्पन्न किया तो उन्हें ज्ञान भी दिया होगा। भाषा का ज्ञान भी दिया होगा। ज्ञान भाषा में ही निहित होता है। ज्ञान देने के लिये भाषा का ज्ञान देना आवश्यक था। परमात्मा ने भाषा व ज्ञान दोनों एक साथ दिये। किनको दिये? यह ज्ञान अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा नाम के चार ऋषियों को दिया गया। ईश्वर सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी है। वह जीवात्माओं की आत्मा के भीतर भी व्यापक रहता है। इस कारण परमात्मा शरीर धारण न कर ऋषियों की आत्मा में ही वेद ज्ञान को स्थिर, प्रकट, प्रतिष्ठित व प्रेरित कर देता है। इस वेदज्ञान को चारों ऋषियों ने ब्रह्मा जी नाम के एक अन्य ऋषि को दिया था। इन सब ने मिलकर सभी मनुष्यों में वेदों का प्रचार किया। इस प्रकार से भाषा व ज्ञान का प्रादुर्भाव सृष्टि के आरम्भ में हुआ था। यह बात ऐतिहासिक है और सत्य भी है। आश्चर्य है कि संसार के सभी मत आर्यसमाज की इस वैदिक मान्यता को स्वीकार नहीं करते और इसके स्थान पर असत्य परोसते हैं। यह आर्यसमाज व मत-मतान्तरों में एक मुख्य अन्तर है।
एक प्रमुख मान्यता यह है कि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की उत्पत्ति हिमालय के तिब्बत स्थान पर हुई थी। यह वैदिक मान्यता है। महाभारत में इसका वर्णन है। महाभारत पांच हजार वर्ष पूर्व रचित ग्रन्थ है। सृष्टि की आदि से महाभारत युद्ध तक आर्यों में इस सत्य मान्यता का प्रचार था। इसके अतिरिक्त नालन्दा व तक्षशिला के पुस्तकालयों में बहुत बड़ी संख्या में पुस्तकें एवं पाण्डुलिपियां थी। यह प्राचीन साहित्य का विशाल भण्डार था। इन पुस्तकालयों में ज्ञान विज्ञान के अनेकानेक ग्रन्थ थे। मुस्लिम आक्रान्ता शासकों के आदेश से इन पुस्तकालयों में आग लगा दी गई थी। यह आग महीनों तक जलती रही थी। आग क्यों लगाई गई थी, इस लिये कि जिससे वेद व आर्य धर्म एवं संस्कृति को नष्ट किया जा सके। यह लोग मानवता के शत्रु थे। दूसरों के देश में जाकर उन्हीं को नष्ट करने का विचार अमानवीय एवं दुर्दमनीय है। यदि यह साहित्य न जलाया गया होता, अंग्रेजों ने चित्रकूट का बड़ा पुस्तकालय न जलाया होता, तो भारत में ज्ञान व विज्ञान के अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते और आज भारत ज्ञान व विज्ञान में विश्व का एक उन्नत देश हो सकता था।
इतिहास की इन दुःखद घटनाओं में हमारे पौराणिक सनातनी बन्धुओं वा उनके पूर्वजों का योगदान भी है। उन्होंने महाभारत के बाद न केवल वेदों का अध्ययन व अध्यापन छोड़ दिया था अपितु अनेक वेद विरुद्ध मान्यताओं का भी प्रचार किया था। स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन से वंचित कर दिया गया था। यह कार्य अनुचित व अमानवीय था। यदि ऐसा न किया गया होता तो वैदिक धर्म सुरक्षित रहता क्योंकि स्त्री व शूद्र स्वभाव से ही परिश्रमी व तपस्वी होते हैं। ऐसा करने का कारण तत्कालीन पण्डितों का वेदों का अनभ्यास, अज्ञान व स्वार्थ प्रतीत होता है। यज्ञों में पशु-हिंसा व अमानवीय आचरण का कारण, एक रानी का घोड़े से समागन, भी यही बातें थी। यदि ऐसा न होता तो भारत खण्ड-खण्ड न होकर विदेशी विधर्मी शक्तियों से कदापि पराजित न होता। यह सब भारत के पतन की कहानी है। इसका अधिक विस्तार न करना ही उचित है। हमारा कहना मात्र यह है कि आदि मानव सृष्टि तिब्बत में हुई थी। इस सत्य मान्यता को भी अधिकांश मत अपने स्वार्थों के कारण स्वीकार नहीं करते और न इसके विरुद्ध उनके पास कोई पुख्ता प्रमाण ही है जिसे उन्होंने आज तक प्रस्तुत किया हो।
वेद सब सत्य विद्याओं का ग्रन्थ है। सृष्टि की उत्पत्ति का भी वेदों में वर्णन है। वेदों के अनुसार संसार में तीन अनादि व नित्य पदार्थों ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति की सत्ता है। प्रकृति सूक्ष्म पदार्थ है और इसकी सत्ता जड़ है। इसमें चेतनता का गुण नहीं है। परमात्मा एवं जीवात्मा चेतन पदार्थ हैं। परमात्मा सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा जीवों को कर्म फल प्रदाता है। जीवात्मायें जन्म-मरण धर्मा, कर्मों के बन्धनों में फंसी हुई सूक्ष्म एवं एकदेशी तथा ससीम सत्ता है। परमात्मा जीवों को सुख देने व इनका कल्याण करने के लिये इस सृष्टि की रचना करते हैं। प्रकृति से परमाणु, अणु, जीवात्माओं के सूक्ष्म शरीर, पंचभूत, वनस्पतियां एवं प्राणियों के शरीर परमात्मा के द्वारा बनते हैं। यह कार्य अपौरुषेय कार्य कहलाता है। इसे परमात्मा करता है। परमात्मा से इतर अन्य कोई सत्ता है ही नहीं जो सृष्टि की रचना कर सके। अतः सृष्टि की रचना, धारण व संचालन तथा प्रलय आदि कार्यों को परमात्मा ही करता है। इस प्रकार यह सृष्टि अस्तित्व में आती है और मनुष्य आदि प्राणियों की उत्पत्ति व जगत का संचालन होता है। यह सत्य ज्ञान भी हमारे मत-मतान्तरों के लोगों के पास नहीं है। यह ज्ञान आर्यसमाज के पास है और आर्यसमाज सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों द्वारा और मौखिक रूप से इसका प्रचार करता है।
उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त आर्यसमाज अविद्या को दूर करने तथा विद्या का प्रचारक है। वह हर मान्यता व सिद्धान्त को बुद्धि व ज्ञान की कसौटी पर कस कर ही स्वीकार करता है। जो बातें ज्ञान, तर्क व बुद्धि के विरुद्ध हैं, आर्यसमाज उनको स्वीकार नहीं करता अपितु उनका खण्डन करता है। इसी कारण आर्यसमाज मनुष्यों के लिए हानिकारक व असत्य होने के कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध तथा जन्मना जातिवाद आदि अन्धविश्वासों व अवैदिक मान्यताओं का खण्डन करता है। वह समस्त सामाजिक कुरीतियों का भी खण्डन करता है और वेद से पुष्ट सामाजिक सत्य मान्यताओं व परम्पराओं का प्रचार करता है। आज कोरोना संक्रमण रोग चल रहा है। संसार में इस समय तक लगभग 1.50 लाख मनुष्य मृत्यु का शिकार हो चुके हैं। आश्चर्य है कि देश में हजारों व लाखों फलित ज्योतिषियों व भविष्य वक्ताओं के होते हुए भी किसी ज्योतिषी महानुभाव ने दिसम्बर व जनवरी, 2020 तक इस रोग की भविष्यवाणी नहीं की थी न ही जो हानि हुई है, उसका कोई मोटा अनुमान ही बताया था। इसी से फलित ज्योतिष की निरर्थकता को जाना जा सकता है। लेख में यदि हम अन्य अनेक बातों का उल्लेख करें तो इसका आकार बहुत अधिक हो जायेगा जो कि उचित नहीं है।
अतः निष्कर्ष रूप में हम कहना चाहते हैं कि आर्यसमाज द्वारा स्वीकार व प्रचारित वैदिक मान्यतायें ही संसार के सब मतों के लिये आदर्श एवं स्वीकार करने योग्य है। आर्यसमाज के समान व इससे अधिक सत्य को ग्रहण व असत्य को छोड़ने वाली संस्था देश व संसार में नहीं है। आर्यसमाज एक आदर्श संस्था है। इसको स्वीकार करने से हमारा यह जन्म व परजन्म भी सुधरता व उन्नत होता है। आत्मा की उन्नति होती है और दुःखों से मुक्ति मिलती है। अतः सब मनुष्यों को मत-मतानतरों के विचारों से ऊपर उठकर ईश्वर, वेद और आर्यसमाज की शरण में आकर अपने जीवन को सार्थक व सफल करना चाहिये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य