सेवा परमो धर्मः सूत्र-वाक्य की परीक्षा
ओ३म्
हमारे देश में कुछ वाक्य व सूत्र प्रचलित हो गये हैं जिनमें से एक सूत्र वाक्य है ‘सेवा परमो धर्मः’। इसका अर्थ सभी जानते हैं। इसके आधार पर सेवा ही परम धर्म है। पता नहीं यह शब्द व वाक्य कहां से आया है? यह वेद वाक्य तो कदापि नहीं हो सकता और न ही आर्ष ग्रन्थों का हो सकता है। हमारे यहां ‘धर्म’ उन गुणों को कहा गया है जिसे मनुष्यों को धारण करना चाहिये। श्रेष्ठ गुणों से युक्त स्वभाव को धर्म कहा जाता है। कहते हैं कि श्रेष्ठ गुणों वाला वह व्यक्ति धार्मिक है। सेवा के गुण व स्वभाव को धारण करना धर्म का एक अवयव व अंग हो सकता है परन्तु यह धर्म के अन्य सभी अंगों में सबसे बड़ा व महान कदापि नहीं हो सकता। धर्म के दस अंग हैं धैर्य, क्षमा, इच्छाओं का दमन, अस्तेय, शौच, इन्द्रियों पर नियंत्रण, धी वा सद्बुद्धि, विद्या, सत्य व अक्रोध। यह धर्म के दश लक्षण कहे जाते हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर की उपासना, अग्निहोत्र करना, माता-पिता व आचार्यों की सेवा करना भी धर्म है। इन्हें भी धर्म का अंग कहा जा सकता है व वस्तुतः यह हैं भी धर्म के अंग। इसी प्रकार से निर्धनों व समाज सेवा में रत संस्थाओं को दान देना, परोपकार करना, राष्ट्र भक्ति, चरित्रवान होना, कुटिल न होना, परनिन्दा न करना आदि भी धर्म के अंग हैं। ऐसी स्थिति में ‘सेवा परमो धर्मः’ या ‘अहिंसा परमो धर्मः’ कहने से लगता है कि धर्म विषयक शेष अंग व लक्षण महत्वहीन व इनसे कमतर हैं। हम विचार करते हैं तो हम सेवा परम धर्म के विचार व सिद्धान्त से सहमत नहीं हो पाते। हां, सेवा के योग्य व पात्र लोगों की सेवा करना धर्म है, यह हम स्वीकार करते हैं। इससे किसी को कोई विरोध व मतभेद नहीं हो सकता।
जब हम यह कहते हैं कि सेवा परम धर्म है तो यह मान लिया जाता है कि सेवा में पात्रता का ध्यान नहीं रखना चाहिये। हम विचार करते हैं तो हमें लगता है कि सेवा करते हुए भी हमें पात्रता का ध्यान रखना चाहिये। रामायण का उदाहरण है कि रावण एक भिक्षुक व साधु के वेश में भिक्षा लेने आया था। माता सीता उस भिक्षुक की सेवा हेतु उसे भोजन के पदार्थ दे रही थी। यह भिक्षा एक सेवा ही तो थी। यदि इसे परम धर्म कहा जाये तो इसका परिणाम देखना चाहिये। जिस कार्य के परिणाम से व्यक्तिगत, समाजिक व देश का अहित हो, वह कार्य अच्छा होने पर भी अच्छा न होकर परम धर्म तो क्या अधर्म ही कहा जा सकता है। अतः सेवा करनी चाहिये और सेवा करते हुए यह ध्यान रहना चाहिये कि हम जिसकी सेवा कर रहे हैं वह उसका पात्र हो। हमारी सेवा से वर्तमान व भविष्य में हमारा व हमारे बन्धुओं का किसी प्रकार से अनीष्ट न हो। सेवा लेने वाले की पात्रता में प्रथम आवश्यकता तो यही होती है कि वह व्यक्ति निर्दोष होना चाहिये। वह व्यक्ति अपराध प्रवृत्ति का न हो। यदि सेवा लेने वाला इन दोषों से युक्ता होगा तो सेवा का परिणाम गलत हो सकता है और तब सेवा करने वाले को पछताना पड़ सकता है।
महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में एक जाट व फलित ज्योतिषी की कथा लिखी है। फलित ज्योतिषी लोभी होता है और वह जाटनी को अकेली देखकर कहता है कि तुम्हारे परिवार में निकट भविष्य में एक प्राणी की मृत्यु हो सकती है। वह इसका उपाय कर सकता है। जाट तभी घर आता है और सारी बातों को जानकर अपनी पत्नी को उस ज्योतिषी के लिये घर से एक बोरी अन्न लाने को कहता है। तदन्तर वह एक लठ उठाकर उस पर प्रहार करते हुए कहता है कि तुझे अपने वर्तमान का तो ज्ञान नहीं है और तू हमारे भविष्य में हमारे परिवार में मृत्यु की झूठी व अतार्किक बात करता है। जाट बन्धु ने जो किया वह वस्तुतः उस ढोंगी की सेवा ही थी। इससे हमें शिक्षा लेनी चाहिये।
हम समझते हैं कि मनुष्यों की सेवा करनी चाहिये और ऐसा करते हुए व्यक्ति का सज्जन, निष्पाप, निष्छल आदि होना आवश्यक है। हमें दूसरे व्यक्तियों से यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये। सेवा करते हुए हमनें कई लोगों को सांपों को दूध पिलाते हुए देखा है और उन सांपों को दूध पिलाने वालों को डसते हुए भी सुना व देखा है। अतः सेवा को विवेकपूर्वक करना चाहिये। धर्म के सभी अंग व प्रत्यंगों को उचित महत्व देना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने वेद के पढ़ने-पढ़ाने और सुनने-सुनाने को परम धर्म बताया है। वस्तुतः वेदाध्ययन व वेद प्रचार ही मनुष्य का परम धर्म है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य