ढूंढ़ रही हूँ मैं अपना वजूद
खो गई मैं कहीं ढूंढ़ रही हूँ, मैं अब अपना वजूद,
हर धड़कन में मैं बसती थी, कहाँ गया मेरा वजूद,
मैंने तुमको ज्ञान दिया, जीवन का हर पाठ दिया,
भूलाकर मेरी चाहत को, तुमने मुझे बिसरा दिया,
मेरा ज्ञान तुम्हारी हर पीढ़ी की रगों में समाया है,
जानती हूं मैं डिजिटल का ज़माना अब तो आया है,
मेरा जीवन समाया है अनगिनत ग्रंथों और कथाओं में,
बसती हूं मैं रामायण, गीता, बाइबल और कुरान में,
मेरे जीवन का नहीं कोई अंत है, ना भूलो तुम कि,
अ आ इ ई से लेकर जीवन पर्यन्त मेरा अस्तित्व है,
जब मैं श्वेत वस्त्र के साथ निःशब्द आती हूँ,
तब तुम्हारे विचारों को अपने अंदर समाती हूँ,
अपने मन की भावनाओं को मेरे तन पर रंग जाते हो,
और बड़े बड़े लेखक और लेखिका तुम बन जाते हो,
भूलो ना वह प्यार हमारा, जो सदियों से तुमको बांटा है,
तुम्हारे जीवन का हर पन्ना, इतिहास बन मुझमें ही समाता है,
छोड़ोगे जो साथ हमारा, इतिहास कहां लिख पाओगे,
नई पीढ़ियों को, भूतकाल का सफ़र कैसे समझाओगे,
इतिहास ही है वह जरिया, जो भूल हमारी हमें बताता है,
गलती फ़िर से ना दोहराएं, यह सबक हमें समझाता है।
–रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)