धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

“यदि अल्पज्ञ चेतन जीवों की सत्ता न होती तो ईश्वर सृष्टि न बनाता

ओ३म्

वैदिक धर्मी आर्य जानते हैं कि संसार में तीन पदार्थ अनादि और नित्य हैं। अनादि का अर्थ है कि तीन पदार्थों का आरम्भ उत्पत्ति नहीं हुई है। यह सदा सर्वदा से आकाश में हैं और अनन्त काल तक अर्थात् सर्वदा रहेंगे। यह तीन पदार्थ हैं ईश्वर, जीव तथा सृष्टि। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक तथा अविनाशी है। जीवात्मा चेतन अनादि पदार्थ वा सत्ता है। यह आनन्द से रहित तथा आनन्द की आकांक्षी होती है। चेतन होने के कारण यह अपनी सीमा व सामथ्र्य के अनुसार ज्ञान ग्रहण कर कर्म कर सकती है। जीव अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अजर, अमर, कर्म के बन्घनों बंधा हुआ, जन्म-मरण धर्मा, उपासना-योग-समाधि आदि के द्वारा समाधि को प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ है। ईश्वर साक्षात्कार जीव की महत्तम सफलता होती है जिसको प्राप्त कर यह जन्म मरण के बन्धनों से सुदीर्घकाल 31 नील 10 खरब से अधिक वर्षों के लिये मुक्त हो जाता है। इस अवधि में यह ईश्वर के सान्निध्य में रहकर इच्छानुसार असीम आनन्द का भोग करता है। मनुष्य जन्म होता ही शारीरिक उन्नति, ज्ञान प्राप्ति, ईश्वरोपासना, परोपकार, वेद-धर्म प्रचार आदि के लिये। संसार में जीवों की संख्या मनुष्य ज्ञान की दृष्टि से अनन्त है परन्तु ईश्वर की दृष्टि व उसकी अनन्त सामथ्र्य के कारण जीवों की संख्या गण्य व सीमित कह सकते हैं। ईश्वर प्रत्येक जीव के कर्मों को जानता है और उसके अनुसार उसे जन्म एवं सुख-दुःख भोगों की व्यवस्था करता है। जीवों को उनके पूर्व जन्म के कर्मानुसार सुख व दुःख भुगाने अथवा उन्हें न्याय देने के लिये ही ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है व इसका पालन कर रहा है। यदि सृष्टि में जीवात्मायें न होती तो ईश्वर सृष्टि को कदापि न बनाता। ईश्वर में सृष्टि की रचना करने तथा जीवों के पाप-पुण्य के अनुसार उनको भोग प्रदान करने की जो सामथ्र्य दृष्टिगोचर होती है, वह उसमें होने पर भी, जीवों का अस्तित्व न होने पर, व्यर्थ व अनुपयोगी होती। संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति की सत्तायें सत्य एवं यथार्थ हैं।, इसीलिए ईश्वर सृष्टि का निर्माण व इसका पालन करने सहित जीवों के जन्म-मरण एवं सुख-दुःख आदि भोग की व्यवस्था करता चला आ रहा है। इस सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व प्रलय अवस्था थी और उस प्रलय अवस्था से पूर्व सृष्टि थी। इस प्रकार यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है।

सृष्टि में तीन पदार्थों की सत्ता अनादि काल से है। इस पर विचार करते हैं तो इन तीनों का होना एक रहस्य से पूर्ण एवं रोमांचक सा लगता है तथापि यह सत्य एवं सुस्पष्ट है कि अनादि काल से ही इन तीनों का अस्तित्व है। इनकी स्वतः व किसी अन्य कारण से उत्पत्ति नहीं हुई है। यह एक ऐसा सत्य है जो विचार एवं चिन्तन करने पर सत्य व यथार्थ अनुभव होता है। इस पर विश्वास करने के अतिरिक्त हमारे पास अन्य कोई विकल्प नहीं है। इस त्रैतवाद के सिद्धान्त पर विश्वास करने में ही हमारा कल्याण है। हमारी कार्य सृष्टि अत्यन्त सूक्ष्म, निराकार, त्रिगुणात्मक कणों से युक्त प्रकृति का विकार है। प्रकृति में यह विकार पूर्व कल्प की प्रलयावस्था व प्रलयकाल की समाप्ति पर ईश्वर करता है। वेद, सांख्य दर्शन तथा उपनिषदों में परमात्मा ऋषियों ने सृष्टि रचना का प्रकाश वर्णन किया गया है। इस संक्षिप्त एवं सारगर्भित वर्णन से विज्ञान के साथ संगति लग जाती है। वेद एवं ऋषियों के ज्ञान के सम्मुख हमारा सिर झुक जाता है। त्रिगुणात्मक प्रकृति का विकार ही परमाणु अणु है। नाना प्रकार के तत्व यौगिक आदि पदार्थ प्रकृति का ही विकार हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार सत्व, रज व तम, इन तीन गुणों का जो संघात है, उसी को प्रकृति कहते हैं। सृष्टि की रचना के समय परमात्मा इस प्रकृति से क्रमशः महतत्व बुद्धि, उस से अहंकार, उस से पांच तन्मात्रायें, सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन बनाते हैं। पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये पदार्थ और और चौबीसवाँ पुरुष अर्थात् जीव तथा पच्चीसवां परमेश्वर है। जीव परमेश्वर प्रकृति आदि किसी पदार्थ के विकार नहीं है अपितु स्वतन्त्र सत्तायें हैं। ऐसा ही वर्णन ऋषि दयानन्द जी ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के आठवें समुल्लास में किया है। यह वर्णन ऋषियों द्वारा मान्य होने तथा इसका विज्ञान से विरोध न होने से इसे सबको स्वीकार करना आवश्यक एवं अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं करते तो इसका कोई अन्य विकल्प संसार में किसी के पास नहीं है। हम संसार में सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, पृथिवी पर अग्नि, जल, वायु और आकाश सहित विभिन्न पदार्थों को देखते हैं। वह सब भी प्रकृति के ही विकार हैं। इन सबकी रचना परमात्मा से हुई है। मनुष्यों के लिये इनकी रचना करना सम्भव नहीं है। इस कारण से ईश्वर को मानना ही मनुष्य के लिए प्रथम व अन्तिम विकल्प है।

परमात्मा ने प्रकृति से इस सृष्टि को बनाकर अस्तित्व प्रदान किया है। विगत 1.96 अरब वर्षों से यह कार्यरत संचालित है। सृष्टि की कुल अवधि 4.32 अरब वर्ष होती है। शेष अवधि तक यह सृष्टि इसी प्रकार चलती रहेगी। इस पर वनस्पतियां ओषधियों सहित अग्नि, जल, वायु, सूर्य का प्रकाश आदि सब पदार्थ विद्यमान रहेंगे। जीवों का जन्म मरण जैसा अब होता है, उसी प्रकार से चलता रहेगा। हमारा सौभाग्य है कि हमारा वर्तमान जन्म मनुष्य योनि में हुआ है। यह हमारे पूर्वजन्मों के अभुक्त कर्मों के कारण हुआ है। हमारे इस जन्म से पूर्व आधे से अधिक पुण्य कर्म होने के कारण परमात्मा ने हमें मनुष्य जन्म दिया। यदि आधे से अधिक कर्म पुण्य न होकर पाप कर्म होते तो हमें मनुष्य जन्म के स्थान पर पशु व पक्षियों आदि की असंख्य योनियों में से किसी एक योनि में जन्म मिलता। परमात्म कितना दयालु है कि उसने हमसे इस मनुष्य देह व उसके द्वारा प्रदत्त सुख सुविधाओं का कोई मूल्य वसूल नहीं किया गया। हम घरों में विद्युत व जल का उपयोग करते हैं तो हमें सम्बन्धित विभाग को कर देना पड़ता है। हमारी आय पर भी कर लगता है। गृह कर भी देना होता है। परन्तु परमात्मा की दया का कोई पारावर नहीं है। वह हमसे कोई मूल्य नहीं मांगता। हमारा अपना कर्तव्य बनता है कि हम ईश्वर को जानें और उसे प्राप्त हों जैसा पुत्र अपने माता-पिता को प्राप्त होता है। माता व पिता को प्रसन्न करने के लिये पुत्र उनकी आज्ञाओं का पालन करता है तथा उन्हें भोजन, वस्त्र, आवास आदि देता है। उन्हें रोग होने पर ओषधि का सेवन भी कराता है। परमात्मा को भोजन आदि किसी भौतिक पदार्थ की आवश्यकता नहीं है। हमें उसको जानकर उसकी आज्ञाओं का पालन करके उसे प्रसन्न करना है। ऐसा करने पर वह हमें अनेक सुख व लाभ प्रदान करेगा।

परमात्मा ने हमारे मार्गदर्शन कर्तव्य के पालन के लिये हमें वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में ही दिया था। हम उसे पढ़ेंगे तो हमें परमात्मा के स्वरूप गुण-कर्म-स्वभाव सहित प्रकृति के सभी पदार्थों, उनके उपयोग सहित मनुष्य के कर्तव्यों सहित ईश्वर की उपासना आदि का ज्ञान हो जायेगा। हम संसार में यदि किसी मनुष्य से छोटा सा भी उपकार लेते हैं तो कृतज्ञतावश उसको धन्यवाद कहते हैं। परमात्मा ने हम जीवों के लिये इस सृष्टि को बनाया, हमें मनुष्य शरीर दिया, हमें नाना प्रकार की शक्तियां सुख आदि दिये हैं। ईश्वर के इन प्रतिदानों के लिये हमारा कर्तव्य बनता है कि हम उपासना करके उसका धन्यवाद करें। यदि ऐसा करेंगे तो हम कृतज्ञ कहलायेंगे और कृतघ्नता के पाप से बचेंगे। इससे हमें ही नाना प्रकार के लाभ होंगे और हमारी आत्मा की उन्नति सहित हमारे भावी जन्म भी सुधरेंगे। हमारी मृत्यु भी सुखद होगी। किसी बड़े मनुष्य से मित्रता होने पर उस मनुष्य का मूल्य व महत्व बढ़ जाता है। परमात्मा को यदि हमें मित्र बनाना है तो हमें वेदानुसार सद्कर्म करने होंगे। ऐसा करके हमारा निश्चय ही महत्व बढ़ेगा। आईये हम सब ईश्वर की शरण में चलते हैं। मत-मतान्तरों की मिथ्या बातों का त्याग करते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पर नियंत्रण करने का भी अभ्यास करते हैं। इसी में सबका हित व कल्याण है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य