ग़ज़ल
कहाँ गई मेहबूबा मेरी मुझें चाहने वाली
रूठकर बैठी कहाँ मुझको मनाने वाली
उसकी आँखों मे आँसू देख नही पाता हूँ
आँखे भी रोती है देख उसे रुलाने वाली
राह चलते चलते भटक गया हूँ रस्ते से
कहाँ गई मुझको रहगुजर दिखाने वाली
वो जब रूठती थी उसको मना लेता था
टूट गई माला मोती पिरोकर बनाने वाली
उदास बैठा आज घर के किसी कोने में
किधर है दोस्त मेरी मुझको सताने वाली
उसको जो कहना था वह बोल नही पाई
बात बताई नही उसने मुझे बताने वाली
अपने हाथों में लिखती है तेरा नाम नन्हा
सुना है आज वह मेहंदी है लगाने वाली
– शिवेश हरसूदी, हरदा (म.प्र.)