वादा
“तुम्हें गिरते देख मैंने पकड़ लिया है, हाथ मत छोड़ना! कसकर पकड़ के रखो वरना तुम गिरे तो मैं भी नष्ट हो जाऊँगी। तुम्हारे सहारे ही तो मैं जमा हूँ, नदियों में, तालाबों में, नलों से होते हुए तुम्हारे घरों में।”
फिसलती चट्टानों से सम्भलकर वह उठ ही रहा था कि उसके कान फुसफुसाहट सुनकर खड़े हो गए।
“अरे! अरे! देखना छोड़ना नहीं, किसी भी हाल में नहीं। पीने-नहाने के लिए मैं चाहिए तुम्हें कि नहीं ! यदि चाहिए तो फिर कसकर पकड़े ही रहना, वरना उँगली भर रह जाऊँगी मैं।”
झरने के नीचे खड़े होकर पानी से खेलते हुए कानों में कोई आवाज़ दुबारा से गूँजी तो वह चारो तरफ चकरबकर देखने लगा। अपने कल-कल को पीछे छोड़ती हुई वही आवाज़ फिर आयी तो वह पानी की ओर हाथ बढ़ाए हुए स्टेच्यु की स्थिति में आ गया।
“भरा-पूरा शरीर था कभी मेरा लेकिन तुम्हारे दादा-परदादा ने कीमत नहीं समझी मेरी। तुम भी उन्हीं के नक़्शे-क़दम पर चलने लगे हो। अब हाथ भर रह गई हूँ, हो सके तो मेरी कीमत समझो और कसकर थामे रहो मुझे। जैसे तुम्हारे बाद भी तुम्हारे बच्चे मेरी उंगलियों को छू सकें, क्यों थामे रहोगे न!”
मूर्तिवत उसने हाँ में अपनी मुंडी हिला दी।
“यदि तुमने भी छोड़ दिया न तो तुम अपने आँसुओं में ही पाओगें मुझे।”
झरने के नीचे खड़ा वह झरने से आते छटाँग भर पानी को देख सोच में डूब गया।
“सुनो, तुम मुझे जीवन दो बदले में मैं तुम्हें जीवित रखूँगी, वादा है ये मेरा।”
— सविता मिश्रा ‘अक्षजा’