ग़ज़ल
ग़ज़ल
1222 1222 1222 122
करेगा दम्भ का यह काल भी अवसान किंचित ।
करें मत आप सत्ता का कहीं अभिमान किंचित ।।
क्षुधा की अग्नि से जलते उदर की वेदना का ।
कदाचित ले रहा होता कोई संज्ञान किंचित ।।
जलधि के उर में देखो अनगिनत ज्वाला मुखी हैं।
असम्भव है अभी से ज्वार का अनुमान किंचित।।
प्रत्यञ्चा पर है घातक तीर शायद मृत्यु का अब ।
मनुजता पर महामारी का ये संधान किंचित ।।
चयन पर आज जनता की यही स्तब्धता है ।
प्रकट कैसे अहं का आप में प्रतिमान किंचित ।।
बिकी हैं राष्ट्र की सम्पत्तियाँ और स्मिता भी ।
चुनावों तक रहेगा देश को यह ध्यान किंचित ।।
प्रकृति के मर्म के उपहास का परिणाम ही है ।
प्रलय करने चला है युद्ध का सम्मान किंचित ।।
शवों पर काल का यह ताण्डव तुम रोक लेते ।
हृदय में सृष्टि का होता कहीं स्थान किंचित ।।
विवशता की परिधि का टूटना है सत्य अंतिम ।
यहाँ करता है मानव प्रति दिवस विषपान किंचित ।।
– नवीन मणि त्रिपाठी