वेद और आर्यसमाज देश व समाज की प्रमुख सम्पत्ति व शक्ति हैं
ओ३म्
आर्यसमाज का अस्तित्व वेद पर आधारित है। वेद ईश्वरीय ज्ञान और सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद ज्ञान व विज्ञान से युक्त व इनके सर्वथा अनुकूल है। वेद विद्या के ग्रन्थ हैं। वेद में अन्य ग्रन्थों के समान, कहानी किस्से व किसी आचार्य व मत प्रवर्तक के उपदेश नहीं हैं अपितु वेदों में इस जगत के रचयिता परमेश्वर के मनुष्यों की सर्वांगीण उन्नति करने सहित उसे दुःखों से सर्वथा मुक्त कर मोक्ष प्रदान करने वाली शिक्षायें एवं उपदेश हैं। परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में जब मनुष्यों को उत्पन्न किया तो उन्हें कर्तव्य व अकर्तव्य का बोध कराने के लिये चार वेदों का ज्ञान दिया था। यदि परमात्मा ऐसा न करता तो मनुष्य न तो भाषा को उत्पन्न कर सकते थे और न ही सत्यासत्य का निर्णय कर सकते है। परमात्मा ने मनुष्यों व सभी प्राणियों के शरीरों को बनाया है। मनुष्य आज तक इतना सक्षम व समर्थ नहीं हुआ कि वह मानव व प्राणी शरीर तो क्या, अपने व दूसरों के शरीर का एक अंग व प्रत्यंग ही बना सके। इसी प्रकार से परमात्मा प्रदत्त बुद्धि को ज्ञान को प्रदान करने वाली भाषा व सद्ज्ञान भी परमात्मा ही देता है। मनुष्य का काम केवल परमात्मा की भाषा व ज्ञान को समझना व उससे उपकार लेना है। वह न तो वेदों की भाषा को और न उसके समान किसी भाषा को बना सकता है और न इस सृष्टि के बनाने व इसमें जीवन व्यतीत करने की जो आदर्श जीवन पद्धति है, उसका ही निर्माण कर सकता है। यह सब वस्तुयें व ज्ञान आदि उसे परमात्मा से सृष्टि के आरम्भ में ही प्राप्त हुईं थी। वेद की शिक्षाओं को जानना व उसके अनुरूप आचरण करना ही मनुष्य का कर्तव्य व धर्म है। इससे दूर होने पर मनुष्य अनेक विकृत विचारों, अज्ञान व मिथ्या मान्यताओं में फंस जाता है। वह अज्ञान व स्वार्थों के वशीभूत होकर सत्य से दूर जाकर सत्य को ही स्वीकार करना छोड़ देता है। वह अपने व अपने पूर्व आचार्यों के मार्गों को ही सबसे उत्तम व लाभप्रद मानकर उनका अविवेकपूर्वक समर्थन व व्यवहार करता है। ऐसा ही हमें इतिहास में देखने को मिलता है। मनुष्य की बुद्धि पवित्र हो तभी वह सत्कर्मों को करने में प्रवृत्त होता है अन्यथा वह अपने जीवन में परम्परा से प्राप्त सत्य व असत्य परम्पराओं को ही अपने ऊपर ओढ़कर बिना सत्य व असत्य का विचार किये उन्हीं का निर्वहन करता रहता है।
एक सामान्य व्यक्ति जो मत-मतान्तरों की सत्यासत्ययुक्त शिक्षाओं के अनुसार जीवन व्यतीत करता है वह वेदों के महत्व को तब तक नहीं समझ सकता जब तक की वह पक्षपातरहित व शुद्ध मन व प्रवृत्तियों वाला न हो। जब तक मनुष्य में अपने मत के प्रति आग्रह व दुराग्रह होता है, वह इतर मतों के सत्य व अधिक महत्वपूर्ण ज्ञान व विवेकपूर्ण बातों को स्वीकार करने की सामथ्र्य नहीं रखता। सत्य को यदि स्वीकार करना हो तो मनुष्य को योग की शरण में जाकर यम व नियमों का पालन कर अपने जीवन को सत्य व शुद्ध विचारों से युक्त करना होता है। ऋषि दयानन्द वेदज्ञान को इसलिये प्राप्त कर सके क्योंकि उनमें सत्य को जानने के प्रति तीव्र भावना व इच्छा शक्ति थी। वह किसी भी बात को बिना परीक्षा किये स्वीकार नहीं करते थे। मूर्तिपूजा को वह इसलिये स्वीकार नहीं करते थे कि मूर्ति में ईश्वर के समान चेतनता, ज्ञान, सामथ्र्य, जीवों को सुख प्रदान करना, मनुष्यों को सद्प्रेरणा करना आदि जैसी बातों का अभाव होता है। मूर्ति तो अपने वस्त्र भी नहीं बदल शक्ति और न ही हिलडुल सकती है। इस कारण ऋषि दयानन्द को मूर्ति की शक्तियों में सन्देह हो गया था जिसे उस समय के मूर्तिपूजा करने वाले विद्वान उन्हें समझा नहीं सके थे। इससे उनमें सत्य ज्ञान की प्राप्ति का भाव व संकल्प उत्पन्न हुआ था। इस विचार व भावना ने ही उन्हें सच्चा जिज्ञासु तथा सत्यान्वेषी बनाया था।
अपनी आयु के 22वे वर्ष में ऋषि दयानन्द धार्मिक विद्वानों की संगति को प्राप्त हुए। उनसे उन्होंने धर्म वा अध्यात्म विषयक ज्ञान प्राप्त किया। उस प्राप्त ज्ञान की विवेचना की। उन्होंने सत्य व बुद्धिसंगत बातों को स्वीकार किया और तर्क व प्रमाणहीन बातों को छोड़ दिया। वह योगियों के सम्पर्क में भी आये। उनसे योग की क्रियायें सीखी। उनका योग केवल आसन व प्राणायाम तक सीमित नहीं था अपितु योग के सातवें व आठवें अंग ध्यान व समाधि का भी उन्होंने सफल अभ्यास किया था। समाधि में ईश्वर का साक्षात्कार होता है। इस स्थिति को भी उन्होंने प्राप्त किया था। इस प्रकार समाधि अवस्था में पहुंच कर उनकी बुद्धि सर्वथा निर्मल व पवित्र हो गई थी। इस बुद्धि से ही उन्होंने वेद व संसार के अन्य सभी ग्रन्थों की परीक्षा की। वह संस्कृत के अद्वितीय विद्वान थे। वह संस्कृत में धाराप्रवाह भाषण करते थे। प्रत्येक गूढ़ व गूढ़तम विषयों को भी उन्होंने विचार कर उनका सत्यस्वरूप जाना था जिसका उल्लेख व वर्णन उन्होंने अपने विश्व विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में किया था। ऋषि दयानन्द राग व द्वेष से बहुत उपर उठे हुए थे। वह संसार के किसी एक मत के आग्रही नहीं थे अपितु तर्क व युक्तियों से सिद्ध तथा प्राकृतिक नियमों के सर्वथानुकूल ज्ञान को ही वह सत्य स्वीकार करते थे। उनसे पूर्व उन जैसा सच्चा जिज्ञासु व शोधकर्ता विद्वान नहीं हुआ। इसी कारण वह अपनी सत्य असत्य की परीक्षा करने में समर्थ बुद्धि से सब उपलब्ध धर्म, मत व पन्थ के ग्रन्थों की परीक्षा कर सबकी वास्तविकता को जानकर वेद तक जा पहुंचे थे। वेद ही उन्हें पूर्ण सत्य प्रतीत व सिद्ध हुए थे और उसमें ईश्वर प्रदत्त अपौरूषेय ज्ञान का साक्षात हुआ था। उसे प्राप्त कर ही उन्होंने अपने गुरु व ईश्वर की आज्ञा से वेदों के सत्य व मानवमात्र के हितकारी स्वरूप व शिक्षाओं को देश व समाज में प्रचारित किया था।
महाभारत युद्ध के समय तक समस्त संसार का एक ही धर्म ग्रन्थ था और वह था वेद। वेदानुकूल ग्रन्थ भी समान रूप से मान्य होते हैं। वेद सूर्य के समान स्वतः प्रमाण और अन्य ग्रन्थ वेदानुकूल होने पर परतः प्रमाण होते हैं। यह सिद्धान्त ऋषि दयानन्द ने दिया है जो कि उनकी एक बहुत बड़ी देन है। वेदों का अध्ययन व तदनुरूप आचरण करने से मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास व उन्नति होती है। वेदों का अध्ययन करने वाला मनुष्य ईश्वर, आत्मा व सृष्टि के सत्यस्वरूप को जानता है। आत्मा वा मनुष्य जीवन के उद्देश्य को भी जानता है। वह उपासना से ईश्वर को अपनी आत्मा व बाहर सर्वत्र देखता है। ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना से वह ईश्वर का सहाय प्राप्त करता है। ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करते हुए वह जीवन व्यतीत करता है। सद्कर्म एवं परोपकार के कार्य करना ही उसके जीवन का उद्देश्य होता है। वह अल्पाहार करता है। शुद्ध शाकाहारी अन्न सहित गोदुग्ध एवं फलों का सेवन करता है। वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन कर सत्य को प्राप्त होता है तथा लेखन व उपदेशों से अज्ञानी व जिज्ञासु लोगों को ज्ञान प्रदान करता है। वह जानता है कि मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिये ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र देवयज्ञ, माता-पिता की निष्ठापूर्वक सेवा व सम्मान, विद्वान अतिथियों का श्रद्धापूर्वक आतिथ्य तथा पशु-पक्षियों आदि सभी प्राणियों के प्रति सद्भावना रखते हुए उनके जीवन यापन में साधक होना, बाधक न होना, इन कर्तव्यों का पालन वेदों का अध्ययन करने वाला मनुष्य करता है। वह अपने देश के प्रति निष्ठावान रहता है। विदेशी शक्तियों से मिलने वाले प्रलोभनों को अस्वीकार करता है। देश के लिये वह अपना सर्वोपरि बलिदान तक कर देता है। ऐसे मनुष्यों का जीवन ईश्वर की भक्ति सहित परोपकार के कार्यों में व्यतीत होता है। इसी कारण से वेदों का महत्व है।
वेदों की इस महत्ता के कारण ही ऋषि दयानन्द के लिये वेद प्रचार करना आवश्यक था। लोग वेदों को भूल चुके थे। वेदों का स्थान अविश्वसनीय एवं वेदविरुद्ध मान्यताओं के ग्रन्थों, जो परस्पर विरुद्ध भी हैं, उन पुराणों ने ले लिया था। उपासना का स्थान अज्ञान व अंधविश्वासों से युक्त मूर्तिपूजा, स्थल व नदियों आदि अनेक तीर्थों आदि ने ले लिया था। मनुष्यों व उनकी आत्मा की उन्नति के लिए इन अवैदिक कृत्यों में निहित अविद्या व अन्धविश्वासों का खण्डन करना आवश्यक था। अतः वेदों के प्रचार, अविद्या का नाश, अन्धविश्वासों तथा मिथ्या सामाजिक परम्पराओं के उन्मूलन सहित देश का सर्वविध सुधार व देश को स्वतन्त्र कराने की दृष्टि को सम्मुख रखकर ऋषि दयानन्द ने दिनांक 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। आर्यसमाज का मुख्य कार्य वेद प्रचार कर वेदों की रक्षा करना, अपने धर्म बन्धुओं आर्य हिन्दुओं को अन्धविश्वास व मिथ्या परम्पराओं से छुड़ाकर उन्हें वेद व वेदानुकूल परम्पराओं को स्वीकार कराने के लिये किया जाने वाला एक आन्दोलन है। देश से अविद्या व अशिक्षा दूर करने में भी आर्यसमाज ने दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज तथा वेद विद्या के अध्ययन अध्यापन के लिये गुरुकुलों की स्थापना कर एक प्रभावशाली आन्दोलन को जन्म दिया जिसने देश में जागृति उत्पन्न की। लोगों ने परतन्त्रता की हानियों को समझा और सत्यार्थप्रकाश में स्वराज्य व सुराज्य की प्रेरणा को ग्रहण व धारण किया। इसी का परिणाम स्वदेशी राज्य की स्थापना के लिये किये गये आन्दोलन थे। सभी आन्दोलनों के पीछे प्रेरणा का स्रोत सत्यार्थप्रकाश में ऋषि दयानन्द के कहे गये वचन ही प्रतीत होते हैं।
आर्यसमाज ने देश व समाज से अज्ञान, अन्धविश्वास तथा मिथ्या सामाजिक परम्पराओं को दूर कर ज्ञान विज्ञान से युक्त विचारों के प्रचार व प्रसार में सर्वाधिक योगदान दिया है। विदेशी लोगों द्वारा आर्य हिन्दुओं का किया जाने वाला धर्मान्तरण भी रोका। धर्मान्तिरित बन्धुओं को शुद्ध किया और जो वैदिक धर्म की श्रेष्ठता के कारण इसकी शरण में आना चाहते थे, उनको ग्रहण व धारण किया। आर्यसमाज आज भी प्रासंगिक है। इसका मुख्य कार्य वेद प्रचार द्वारा अज्ञान व अविद्या का निवारण तथा राष्ट्र विरोधी शक्तियों से देश को सावधान करना है। अतीत में आर्यसमाज ने अपना कार्य बहुत ही उत्तरदायित्व व विश्वसनीयता से किया। वर्तमान में आर्यसमाज कुछ शिथिल हो गया है। ईश्वर करे कि आर्यसमाज अपनी शिथिलिता दूर कर पुनः पूर्ववत् सक्रिय हो जाये और देश के सामने उपस्थिति चुनौतियां का सामना कर उन पर विजय प्राप्त करे। ईश्वर सभी देशवासियों को सद्बुद्धि प्रदान करें। हम विदेशी तत्वों से भ्रमित न हों। स्वार्थ व ऐषणाओं का त्याग करें और जो इनसे प्रभावित हैं उनसे दूर रहे व अपने बन्धुओं को सावधान करें। हम सब ऋषिभक्त मिलकर प्राचीन ऋषियों के अनुरूप देश व समाज का निर्माण करें। परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान हमारी सबसे बड़ी सम्पत्ति व शक्ति है। हम किसी से पराजित नहीं हो सकते। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य