कविता
तीव्र अन्धकार को
चुनौती देती
प्रकाश की किरण
उसकी बदगुमानी को
बड़े प्यार से है कहती
तूने एक सवाल किया था
जबाब मे देर हुई,,तो
मेरे वजूद को ही नकार दिया था
अपनी दुर्बलता को
मेरे सिर मढ़ दिया था
मुझे मालूम है
तू ही तो सरगना है
तमाम खुराफ़ातों का
नित्य नई सियासती चालों का
अपने दामन मे पलते अपराधों का
और हद है
मेरी मजबूरी के आलम का
मुझ पर ही लगती है तोहमत
दिन के उजाले मे हुई वारदात
किसी ने कुछ नहीं देखा ?
चर्चा खूब होती है
जलील भी होता हूँ
पर निराश नहीं होता
पता है मुझे
सच सिर्फ सच होता है
जिससे तुझे बहुत डर लगता है
और मै,,हाँ मै
सच का नुमाइंदा हूँ
मेरी हल्की सी आहट
तेरी चीख को दबा देती है
और मेरी शहादत
तेरी रूह को भी ख़लिश देती है
शायद इसीलिए
मै तुमसे डरता नहीं हूँ
बस वक़्त का इंतज़ार करता हूँ
क्योंकि तुम्हारा वक़्त निर्धारित है
पर मेरा नहीं,,,
मै शाश्वत हूँ ,,,,,अजेय हूँ ,,,,,
अमर हूँ ,,,,,,
— राजेश कुमार सिन्हा