तामसिक भोजन व मांसाहार करने वाला मनुष्य ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता
ओ३म्
हम और हमारा यह संसार परमात्मा के बनाये हुए हैं। संसार में जितने भी प्राणी हैं वह सब भी परमेश्वर ने ही बनाये हैं। परमेश्वर ने सब प्राणियों को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोगने के लिये बनाया है। परमात्मा ने मनुष्यों के शरीर की जो रचना की है उससे यह सिद्ध होता है कि उसका वास्तविक भोजन वनस्पतियां, दुग्ध, फल एवं कृषि कार्यों उत्पन्न होने वाला अन्न ही होता है। परमात्मा ने जितनी भी पशु व पक्षी यानियां बनाई हैं, वह भी उनमें विद्यमान आत्माओं के पूर्व मनुष्य जन्म में किये कर्मों का फल देने के लिये बनाई है। यह संसार व इसके सब प्राणी परमात्मा के बनाये हुए हैं किसी मत व सम्प्रदाय के आचार्य व प्रवर्तक के बनाये हुए नहीं हैं। अतः संसार में परमात्मा के नियम ही चलने चाहियें और चल भी रहे हैं। इसके अतिरिक्त अन्य किसी मत व उसके प्रवर्तक का नियम परमात्मा के नियमों के अनुकूल होने पर ही चल सकता है विपरीत व विरोधी होने पर नहीं। इसीलिये हमारे ऋषियों मुख्यतः ऋषि दयानन्द ने यह नियम प्रचारित किया है कि ईश्वर प्रदत्त वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना, पढ़ाना, सुनना, सुनाना तथा उनका जन-जन में प्रचार करना सब मनुष्यों व मुख्यतः वेदानुयायियों आर्यों का परम धर्म है। हम संसार के लोगों को बता सकते हैं कि परमात्मा ने सब मनुष्यों व पशुओं आदि प्राणियों की उनके कर्मानुसार उनकी लगभग आयु निश्चित की हुई है। उन सब को अपने कर्मों का भोग करना है जिससे वह स्वयं कर्मों का भोग कर लेने पर ईश्वरीय व प्रकृति में कार्यरत नियमों के अनुसार मृत्यु को प्राप्त हो सकें। सभी प्राणियों का शरीर सुख व दुःख भोग करने का एक साधन है। पाप कर्मों का फल दुःख होता है। उनका भोग होने के बाद भोगे गये कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। इसके अनन्तर सभी पशु आदि प्राणियों का जो जन्म होता है वह पाप पुण्य बराबर व पुण्य अधिक होने पर मनुष्य योनि में होता है। किसी व किन्हीं पशुओं को किसी भी प्रकार से पीड़ा देना वा सताना घोर अमानुषिक कर्म है। जो भी ऐसा करते हैं, पशुओं पक्षियों वा जल-थलचर को मारते काटते हैं, उनका मांस खाते, पकाते व परोसते हैं, वह सब पाप कर्मों में आता है जिससे उनका आगामी जन्म उनके इस कर्मों के कारण अत्यधिक दुःख को भोगने के लिये निम्न योनियों में होता है। वर्तमान योनि के पशु आदि प्राणी पूर्वजन्म में मनुष्य हो सकते हैं जिन्होंने किसी मूक व निर्दोष प्राणी को कष्ट दिया होगा, उसी का दुःख भोगने के लिये परमात्मा ने उन्हें इस जन्म में पशु बनाया है। मनुष्य पशुओं का मांस केवल अपनी अज्ञानता, कुसंगति व दुष्प्रवृत्ति के कारण ही खाता है। परमात्मा ने मनुष्यों के भोजन के लिये संसार में अनेक प्रकार के स्वादिष्ट अन्न, वनस्पतियां, ओषधियां, फल, दुग्ध व अन्य सात्विक आहार बनाये हैं जिनसे भूख की निवृत्ति होती, शरीर स्वस्थ व बलवान होता है तथा मनुष्य का जीवन दीर्घायु को प्राप्त होता है। अतः किसी पशु आदि प्राणियों को अपनी जिह्वा के स्वाद के लिये कष्ट देना, उन्हें मरवाना व उनका मांस खाना घोर अमानवीय दुष्कर्म ही सिद्ध होता है। जो ऐसा करते हैं उनको मांसाहार तत्काल छोड़ देना चाहिये जिससे उनके शेष जीवन में उनके इस अमानवीय दुष्कृत्य का सुधार होकर भावी जन्मों में वह मांसाहार के महापाप के दुःखों से बच सकें और स्वयं एक मनुष्य के रूप में जन्म लेकर दूसरों को भी सात्विक भोजन करने की प्रेरणा करते हुए पुण्य के भागी होकर उन कर्मों का फल सुख व कल्याण को प्राप्त कर सकें।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति कर ईश्वर व आत्मा को जानना तथा अपने ज्ञान के अनुसार साधना व उपासना कर ईश्वर का साक्षात्कार करना होता है। ज्ञान व साधना के अतिरिक्त श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करना भी मनुष्यों का कर्तव्य होता है। ऐसा करने से मनुष्य के जीवन में सुख व शान्ति की प्राप्ति होती है। उसकी आत्मा की उन्नति सहित उसकी सामाजिक उन्नति होती है। सृष्टि के आरम्भ से ही मनुष्य शाकाहारी था। हमारे सभी ऋषि-मुनि, राम तथा कृष्ण आदि महापुरुष ज्ञानी एवं विवेकवान पुरुष थे। वह मांसाहार नहीं करते थे। वह बुद्धि व बल में आज के व पूर्व उत्पन्न मनुष्यों की तुलना में कहीं अधिक योग्य एवं प्रशंसनीय गुण व कर्मों को करने वाले थे। हमें उनके जीवनों से प्रेरणा लेनी चाहिये। मत-मतान्तर लोगों की बुद्धि के विकास में बाधक ही प्रतीत होते हैं। वह शाकाहार और मांसाहार के लाभ व हानियों पर कभी चिन्तन व समीक्षा नहीं करते। आजकल भी अनेक आधुनिक चिकित्सक अनेक रोगों में मांसाहार को निषिद्ध करते हैं। यदि मांस खाने से लाभ होता तो वह ऐसा कदापि न करते। अन्न व दुग्ध ऐसे आहार हैं जो सभी रोगों में युक्त मात्रा में सेवन किये जा सकते हैं। यही मनुष्य का वास्तविक आहार है। हमें अपनी क्षुधा निवृत्ति के लिए अन्न, वनस्पतियों तथा दुग्ध सहित मौसमी फलों पर निर्भर रहना चाहिये। इससे हमारा शरीर स्वस्थ रहेगा, हम रोगों से बचेंगे और दीर्घायु होंगे। हमारे मन व बुद्धि का भी विकास होगा। हमारे समाज के अन्य मनुष्यों व सभी प्राणियों को भी हमारे शाकाहारी होने से किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होगा। यह मनुष्यत्व व मानव धर्म है। सभी मत व पन्थों को इसका पालन करना चाहिये और अपने नियमों को इसके सर्वथा अनुकूल बनाना चाहिये। यही समय की आवश्यकता है।
ईश्वर की प्राप्ति मनुष्यों को ज्ञान की वृद्धि, ईश्वर की उपासना रूपी साधना तथा शुद्ध-आचरण करने से होती है। हम जो अन्न खाते हैं उसका हमारे शरीर, इन्द्रियों व अन्तःकरण पर प्रभाव पड़ता है। सात्विक अन्न से सात्विक मन बनता है। सात्विक अन्न के सेवन से मनुष्य के स्वभाव में हिंसा के भाव नहीं आते। वह दूसरे प्राणियों को अपने समान देखता व मानता है। वह अन्य सभी प्राणियों को देखकर अपने पूर्वजन्मों तथा भविष्य में कर्मों के आधार पर मिलने वाले अपने व अपने कुटुम्बियों व मित्रों के उन योनियों में जन्मों को देखता है जो एक जन्म में कुछ व दूसरे जन्म में बदलते रहते हैं। इस ज्ञान से उसे सभी प्राणी अपने परिवार के समान अनुभव होते हैं। एक सिद्वान्त यह भी है कि अहिंसा को सिद्ध कर लेने वाले मनुष्य के समीप हिंसक प्राणी भी हिंसा का त्याग कर अहिंसक बन जाते व अहिंसा का ही व्यवहार करते हैं। हिंसक पशु अहिंसक मनुष्यों को हानि नहीं पहुंचाते। अतीत काल में हम देखते हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी चैदह वर्ष तक वनों में रहे। उन्हें कभी किसी हिंसक पशु ने पीड़ित नहीं किया। उसका एकमात्र कारण उनका अहिंसक होना था। हम अहिंसक होकर अन्य मनुष्यों तथा प्राणियों के साथ दया व कृपा का व्यवहार करते हैं। अहिंसा पांच यमों में पहला यम है। यदि अहिंसा को धारण न किया जाये तो मनुष्य सफल उपासक कदापि नहीं बन सकता। यह योग दर्शन के यम संबंधी सूत्र से स्पष्ट होता है। अहिंसा के साथ ही मनुष्य को सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और इनके साथ ही शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर में सत्य निष्ठा को भी धारण करना होता है। इनका पालन करने के बाद ही उपासना करने से मनुष्य सफल होता है। हमारा यह भी अनुभव है कि वेदों का स्वाध्याय किये बिना तथा वैदिक सिद्धान्तों व नियमों का जीवन में पालन किये बिना किसी मनुष्य की उपासना सफल नहीं हो सकती। अतः ईश्वर की उपासना व ईश्वर की प्राप्ति के लिये मनुष्य को सद्ज्ञान की प्राप्ति के लिए वेदों का स्वाध्याय करना चाहिये। सद्ज्ञान के अनुसार ही अपने भोजन एवं कर्मों का सुधार कर ईश्वर की उपासना करने पर ही ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है। ऐसा ही हम ऋषि दयानन्द सहित सभी ऋषि-मुनियों एवं वैदिक धर्म के आदर्श महापुरुष राम व कृष्ण जी के जीवन में भी देखते हैं। सभी योगी शुद्ध शाकाहारी होते हैं और योग दर्शन के नियमों, सिद्धान्तों व शिक्षाओं का पालन करते हैं। ऐसा करना उपासक व योगी के लिये अनिवार्य होता है। मांस के समान ही मदिरा का त्याग करना भी मनुष्यों का कर्तव्य है। मांसाहार अधिक बुरा तथा मदिरा को कम बुरा कहा जा सकता है। ऐसा देखा जाता है कि मदिरापान करने वाले अधिकांश लोग मांसाहारी भी होते हैं।
मनुष्य को यह जीवन सद्कर्म करते हुए ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिये मिला है। ईश्वर का साक्षात्कार होने पर मनुष्य जन्म व मरण के बन्धनों वा समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। इसके विपरीत मांसाहार का सेवन करने से हम कर्म के बन्धनों में फंसते हैं और इससे हमारी अवनति होकर हम जन्म-जन्मान्तर में दुखों से भरी हुई योनियों में विचरण करते हैं। इस दृष्टि से मांसाहार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है जो मनुष्य को अपने लक्ष्य व सुखों से दूर ले जाता है, दुःखों के सागर में डूबों कर मारता है और उसे अपने जन्मदाता परमेश्वर की अवज्ञा का दोषी भी बनाता है। हमें मत-मतान्तरों की अच्छी शिक्षाओं का जो वेदानुकूल हैं, उन्हें ही मानना चाहिये। किसी भी कार्य को करने से पूर्व उसके गुण-दोष पर अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से विचार करना चाहिये। हमें ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिये जिसका परिणाम हमें दुःखों की प्राप्ति के रूप में होना हो। अपने कर्तव्य के ज्ञान के लिये हमें ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ सहित वैदिक साहित्य के उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इससे हमें विवेक प्राप्त होगा और हम अपने कर्तव्य व भोजन आदि का स्वयं ही निर्धारण कर सकेंगे। वेदों में एक महत्वपूर्ण प्रार्थना है कि मैं व हम संसार के सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें। मित्र की दृष्टि अपने मित्रों का हित करने व उन्हें सुखों से युक्त करने की होती है। जिस दिन हमने इस सत्य सिद्धान्त को अपने जीवन में अपना लिया, हम सज्जन पुरुषों व हितकारी पशुओं को किसी भी प्रकार का दुःख देना बन्द कर देंगे। ऐसा होना हमारे जीवन के लिये उत्तम वरदान सिद्ध होगा। हम सत्य व ज्ञान के मार्ग पर चलें तथा असत्य व अज्ञान के मार्ग का सर्वथा त्याग कर दें। यही मानवता और सब मनुष्यों का धर्म है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य