धार्मिक एवं सामाजिक साहित्य में सत्यार्थप्रकाश का अग्रणीय स्थान
ओ३म्
संसार में धर्म व नैतिकता विषयक अनेक ग्रन्थ हैं जिनका अपना-अपना महत्व है। इन सब ग्रन्थों की रचना व परम्परा का आरम्भ सृष्टि के आदिकाल में ही ईश्वर प्रदत्त वेदों का ज्ञान देने के बाद से हो गया था। सृष्टि को बने हुए 1.96 अरब वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इस अवधि में असंख्य ग्रन्थों की रचना हुई है जिसमें से अधिकांश ग्रन्थ अब नष्ट हो चुके हैं। मानव जाति के सौभाग्य से ईश्वरीय ज्ञान चार वेद आज भी सुरक्षित है। वेद सभी सत्य विद्याओं का आधार व भण्डार है। वेदों से ही संस्कृत भाषा अस्तित्व में आयी है। वेदों की सस्कृत भाषा ईश्वर की अपनी भाषा है। इसी भाषा में सर्वव्यापक व निराकार ईश्वर ने मानव जाति के आदि पुरुषों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। हमारे ऋषियों व वेदपाठी ब्राह्मणों के कारण यह ज्ञान आज भी अपने मौलिक रूप में सुरक्षित प्राप्त होता है। इसके लिये सारी मानव जाति वेद रक्षक विद्वानों, ब्राह्मणों व वेदपाठी ब्राह्मणों सहित महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की ऋणी है कि जिन्होंने वेदों की रक्षा की व उन वेदों को शुद्धता से उपलब्ध कराने के लिये अनेक प्रकार के तप व पुरुषार्थ के कार्य किये हैं। वेद केवल आर्य व हिन्दुओं के ही धर्म ग्रन्थ नहीं हैं अपितु यह सृष्टिकर्ता ईश्वर का ज्ञान होने तथा सृष्टि के सभी मनुष्यों के पूर्वजों का धर्म वा आचार ग्रन्थ होने से संसार के सभी लोगों के लिये समान रूप से माननीय एवं आचरणीय हैं। कुछ लोग भ्रमित होने से सत्य को स्वीकार करने को तत्पर नहीं रहते हैं। ऐसे लोग वेदों के सत्य व यथार्थ महत्व को स्वीकार नहीं करते। ऐसा होने पर भी वेद तो मानव जाति सहित प्राणी मात्र के लिये हितकर ज्ञान होने से सभी के लिए आदरणीय एवं अनुकरणीय हैं। एक समय आ सकता है कि जब विश्व के लोग सत्य के ग्रहण एवं असत्य के त्याग को अपना ध्येय निर्धारित करें। यदि ऐसा होता है तो उस दिन वेद ही सृष्टि के सभी मनुष्यों के एकमात्र प्रमुख धर्म ग्रन्थ होंगे। इस दिन की प्रतीक्षा ही नहीं करनी है अपतिु सभी विवेकशील लोगों को इसके लिए अपने स्तर से यथासम्भव प्रयत्न भी करने चाहियें।
सृष्टि को उत्पन्न हुए एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ बीस वर्ष हो चुके हैं। वर्तमान समय से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत का महायुद्ध हुआ था जिसमें जान व माल की अपार हानि हुई थी। इस कारण से विद्या का प्रचार अवरुद्ध हो गया था। वेदों का प्रचार प्रसार न होने से देश व समाज में अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा कुरीतियां प्रचलित हो गयीं थी जो समय के साथ साथ वृद्धि को प्राप्त होती गईं। इसी कारण समय-समय पर संसार में अनेक मत-मतान्तरों की उत्पत्ति भी हुई। वेदों का ज्ञान लुप्त हो जाने के कारण जिन आचार्यों ने अपनी अल्प विद्या, अल्प शक्ति व मानवीय न्यूनताओं के होते हुए धर्मोपदेश किये व ग्रन्थों की रचना की, वह सभी ग्रन्थ अविद्यायुक्त मान्यताओं से युक्त हैं। महाभारत के बाद देश में उत्पन्न आचार्य वेदज्ञान से सर्वथा दूर थे। इस कारण भी उनके बनाये ग्रन्थों व उपदेशों में वेदों के समान सत्य विद्यायुक्त मान्यतायें न होकर अविद्यायुक्त मान्यतायें व सामग्री भरी पड़ी है। इसका परिणाम भिन्न भिन्न मतों के अनुयायियों व एक मत के लोगों में भी आपसी भेदभाव, धर्मान्तरण, अन्याय, शोषण, हिंसा, विवाद आदि होता आया है। यही कारण रहा है कि समय-समय पर देश में अनेक महापुरुष हुए जिन्होंने लोगों को सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा की परन्तु वह सब आचार्य भी वेदज्ञान से विमुख व दूर होने के कारण सत्य वैदिक मान्यताओं को न तो जान सके और न ही प्रचार कर सके। अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण ही हमारा देश छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया था। इसी कारण शक्ति के बिखराव व धर्म रक्षा के उपाय न किये जाने के कारण हम आठवीं शताब्दी में मुस्लिम आतताईयों की हिंसा से ग्रस्त होकर गुलाम बने थे। देश में जो स्वतन्त्र राजा होते थे उनमें एकता न होने के कारण वह भी धीरे धीरे शत्रु राजाओं से पराजित हो जाते थे। ऐसी स्थिति में भी हमारे देश में वीर शिवाजी, वीर महाराणा प्रताप, वीर गुरु गोविन्दसिंह जी, वीर बन्दा बैरागी, हरि सिंह नलवा आदि राजा हुए जिन्होंने वेद धर्म की पताका को उठा कर कर देशवासियों की विधर्मियों से रक्षा की और आज तक हमारी धर्म व संस्कृति को बचा कर रखा है। इस धर्म रक्षा में हमारे कोटिशः धर्म रक्षक बलिदानों ने अपने शीष अर्पित किये हैं। सभी बलिदानियों को हमारा सश्रद्ध नमन है।
वेद संसार के सभी मनुष्यों के धर्म ग्रन्थ हैं। इसका आधार वेदों में उच्चस्तरीय एवं मनुष्यों का कल्याण करने वाले ज्ञान का उपलब्ध होना है। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का अध्ययन व अध्यापन ही मनुष्य का परम धर्म है। इस धर्म का पालन करने से मनुष्य को इस जीवन में भी लाभ होता है और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म में भी लाभ होता है। वेदों का अध्ययन कर तथा उसकी शिक्षाओं को अपनाकर मनुष्य अपना जीवन धर्म का पालन करते हुए सुख व शान्ति से व्यतीत कर सकता है। जो मनुष्य वेदों व उनकी शिक्षाओं से दूर होगा, वह धर्म को न तो जान सकता है और न ही धर्मपारायण बन सकता है। महाभारत युद्ध तथा उसके बाद भी सृष्टि में वेदों की शिक्षाओं को ही धर्म माना जाता था। वेदों से दूर होने के कारण ही हम अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियों तथा मूर्तिपूजा आदि दोषों में फंस गये जिससे हमारा पतन हुआ और हम विधर्मियों के गुलाम तक बन गये। ऋषि दयानन्द (1825-1883) के आगमन पर उनके द्वारा किये गये वेद प्रचार से ही धर्म का पुनरुद्धार हुआ और उसके बाद से देश निरन्तर उन्नति करता चला आ रहा है। हमारे देश में कुछ वेद विरोधी शक्तियों ने देश की उन्नति के मार्ग में बाधायें भी खड़ी की हैं। आज भी वेद विरुद्ध शक्तियां वैदिक शिक्षाओं का प्रचार व प्रसार होने देना नहीं चाहती। उनके स्वार्थ कहीं देश के भीतर व बाहर की वेद विरोधी शक्तियों से जुड़े हैं। वह निष्पक्ष और ज्ञानवान नहीं है। वह स्वार्थों में भी झुके हो सकते हैं। उनके मन व मस्तिष्क वेदविरोधी मिथ्या ज्ञान से भरे हैं। इस कारण से वह वेदज्ञान का विरोध करते हैं। वह स्वयं को बुद्धिमान समझते हैं परन्तु वह ऐसे बुद्धिमान नहीं हैं जो सत्य व असत्य के स्वरूप को समझ सकें। सत्य को जान लेने के बाद भी मनुष्य को अपने स्वार्थों का त्याग कर उसे अपनाना होता है। सभी लोग इस कार्य को नहीं कर सकते। इसी कारण वैदिक धर्म व संस्कृति उत्कर्ष को प्राप्त नहीं हो रही है। वैदिक धर्म को मानने वाले विद्वान व अनुयायी भी अपने अज्ञान, स्वार्थों तथा ऐसे अनेक कारणों से धर्म प्रचार में हितकर सिद्ध नहीं हो रहे हैं। देश में कुछ नेताओं के सत्ता प्रेम ने भी देश के हितों को हानि पहुंचाई है। ऐसा हम आर्यसमाजों में भी होता हुआ देखते हैं। ईश्वर ही सब मनुष्यों को सद्बुद्धि देकर देश व धर्म की रक्षा कर सकता है। उसी से हम इसके लिये प्रार्थना करते हैं।
वेद धर्म के प्रचार का सबसे प्रमुख साधन ऋषि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का प्रचार है। सत्यार्थप्रकाश में वेदों के सब सत्य सिद्धान्तों का संरक्षण हुआ है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़ लेने के बाद वेदों के सत्यस्वरूप का प्रकाश हो जाता है। वेदों के सभी सिद्धान्त व मान्यतायें पाठक व अध्येता को विदित हो जाती हैं। मनुष्य के आत्मा व हृदय में ईश्वर, जीवात्मा तथा धर्म के विषय में जो भी शंकायें हो सकती हैं, उन सबका समाधान वेदमूलक सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के अध्ययन से हो जाता है। सत्यार्थप्रकाश को आर्यसमाज के अनुयायियों का धर्म ग्रन्थ भी कहा जा सकता है। धर्म विषयक जो तत्व हैं, उन सबका ज्ञान सत्यार्थप्रकाश कराता है। सत्यार्थप्रकाश से मनुष्य को ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप का बोध होता है। ईश्वर की उपासना क्या होती है व उसे कैसे किया जाता है, इसका बोध भी सत्यार्थप्रकाश कराता है। सत्यार्थप्रकाश मनुष्य की आत्मा का वह भोजन है जिससे उसके विद्या व तप सिद्ध होते हैं। सत्यार्थप्रकाश अज्ञान व अन्धविश्वासों पर भी प्रकाश डालता है व उनसे दूर रहने की प्रेरणा करता है। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से मनुष्य की बुद्धि की क्षमता बढ़ती है तथा वह सत्य व असत्य का निर्णय करने में सक्षम होती है। कोई विधर्मी सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन किये हुए मनुष्य का माइण्ड वाश नहीं कर सकता जैसा कि आज के पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों का देखा जाता है। वेद व सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य को सत्यमार्ग पर चलने, असत्य मार्ग छोड़ने तथा देशभक्ति की प्रेरणा भी मिलती है। ईश्वर का अनुभव आत्मा में ही किया जा सकता है इसका विश्वास भी सत्यार्थप्रकाश कराता है। आत्मा में ईश्वर का चिन्तन व ध्यान करते हुए उसको उसी में ढूढंना ही ईश्वर की प्राप्ति का उपाय है। वैदिक सन्ध्या इसमें सहायक होती है। वेद व सत्यार्थप्रकाश के अनुसार जीवन बनाना व व्यतीत करना ही वास्तविक पुरुषार्थ है जो मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर कर उसे इनके निकट ले जाता व प्राप्त कराता है। ऋषि दयानन्द का जीवन हमारे लिये आदर्श है। वह सत्यार्थप्रकाश में निर्दिष्ट वैदिक सिद्धान्तों व मान्यताओं के अनुरूप आदर्श महापुरुष थे। उनके जीवन को पढ़कर व उनके जैसे बनकर ही हम अपने मनुष्य जीवन को सफल कर सकते हैं। दोषों से रहित होना तथा सभी भद्र गुणों से युक्त होना ही हमारे जीवन का उद्देश्य है। यह सब लाभ सत्यार्थप्रकाश पढ़कर व उसकी शिक्षाओं का अनुसरण कर प्राप्त होते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य