सामाजिक

परंपराएं या बेड़ियाँ

परंपराएं समाज में व्याप्त वह कड़ियाँ हैं , जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को यथावत सौंप दी जाती है । उनकी उपयोगिता जाने और समझे बिना । परंपरा को धर्म का चोला पहनाकर सुदृढ किया जाता है ।
परिस्थितिवश लिया गया निर्णय विवशता हो सकती है किन्तु परंपरा नही बन सकती या उसे धर्म नहीं माना जा सकता । उसी प्रकार विशेष परिस्थिति में तोड़ी गई परंपरा को अधर्म नहीं माना जा सकता । जब परिस्थितियां परिवर्तनशील हैं, तो परंपराएं कैसे शाश्वत हो सकती हैं ? इस संदर्भ में एक छोटी सी कहानी प्रस्तुत है ।
प्राचीन काल में एक साधु महात्मा थे , जो प्रतिदिन नियत समय पर वटवृक्ष के नीचे साधना किया करते थे । एक दिन एक बिल्ली का बच्चा उन्हे अचेतन अवस्था में मिला । उन्होंने उसका उचित उपचार किया और अपने ही पास पालने लगे ।
साधु का स्नेह पाकर वह उनसे हिलमिल गया ।साधु महात्मा जब भी साधना करने बैठते तो वह बिल्ली का बच्चा उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए उनके ऊपर चढ़ जाता और उनके साथ खेलने का प्रयास करता । इससे उनकी साधना में व्यवधान उत्पन्न होने लगा ।
साधु ने अपने चेलों से कहा ” जबतक मैं साधना में लीन रहूं , इस बिल्ली के बच्चे को सामने वाले पेड़ के साथ बाँध दिया करो ।”
बिना किसी प्रश्न के ऐसा ही होने लगा । बिल्ली का बच्चा अब बड़ा हो गया था, फिर भी नियमित बाँधा जाता था ।
एक दिन महात्मा जी ने समाधि ले ली और उनके स्थान पर आश्रम के वरिष्ठ साधु साधना करने लगे । अब भी नियत समय पर बिल्ली को बाँधा जाता था । बिल्ली अपनी आयु पूरी कर मर गई, फिर बाँधने के लिए दूसरी बिल्ली लाई गई ।
यह उस आश्रम की परंपरा बन गई , क्योंकि किसी ने यह जानने का कष्ट नहीं उठाया कि ऐसा क्यों किया जाता है?
कुछ इस तरह भी परंपराओं का जन्म होता है, जो समय के साथ निरर्थक सिद्ध होती हैं ।
समय के साथ प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन आया है किन्तु सिर्फ धर्म की आड़ में आज भी कई बेतुकी परंपराएं साँस ले रही हैं ।
सच्चा धर्म तो दया और करूणा है । अगर इनकी रक्षा के लिए कुछ परंपराएं टूटती हैं तो तोड़ा जाए, यह अधर्म नहीं होगा । धर्म के नाम पर अड़े रहने में कोई महारथ नहीं ।युधिष्ठिर को अपने धर्म पर अहंकार हो गया था, जिसके कारण उसने अपने भाईयों और पत्नी को भी जुएं में दाँव पर लगा दिया और हार गया । इस अधर्म को भीष्म पितामह  , गुरु द्रोण और महामंत्री विदुर भी नही रोक सके क्योंकि सभी अपने-अपने धर्म से बँधे थे ।कैसी विडंबना थी जिसका लाभ उठाया अधर्मी शकुनि ने । अगर द्रौपदी का विद्रोह न होता, प्रतिशोध का प्रण न होता तो यह गंदगी समाजिक परंपरा बन गई होती ।
परंपराएं तबतक उचित हैं जबतक वह किसी को आहत न करे । अगर यह बेड़ी बन जाए तो तोड़ा जाना उचित है ।
बंधन कैसा भी हो कष्ट ही देता है । परंपराओं का निर्वाह सोच समझकर करें , बोझ समझकर नहीं ।
परिस्थिति अनुसार , समयानुसार उचित निर्णय लेकर सिर्फ मानवता का धर्म निभाएं । यही समय की मांग है ।

— गायत्री बाजपेई शुक्ला

गायत्री बाजपेई शुक्ला

पति का नाम - सतीश कुमार शुक्ला पता - रायपुर, छत्तीसगढ शिक्षा - एम.ए. , बी एड. संप्रति - शिक्षिका (ब्राइटन इंटरनेशनल स्कूल रायपुर ) रूचि - लेखन और चित्रकला प्रकाशित रचना - साझा संकलन (काव्य ) अनंता, विविध समाचार-पत्रों में ई - पत्रिकाओं में लेख और कविता, समाजिक समस्या पर आधारित नुक्कड़ नाटकों की पटकथा लेखन एवं सफल संचालन किया गया । सम्मान - मारवाड़ी युवा मंच आस्था द्वारा कविता पाठ (मातृत्व दिवस ) हेतु विशेष पुरस्कार , " वृक्ष लगाओ वृक्ष बचाओ "काव्य प्रतियोगिता में विजेता सम्मान, विश्व हिन्दू लेखिका परिषद् द्वारा सम्मानित आदि ।