पंकज के मुक्तक
01
बेदना के स्वरों मे मै पलता रहा,
मोम सा हरदम यू ही गलता रहा।
हवाओ ने तो आहत किया है बहुत,
पर दीप सा रात भर मै जलता रहा।
02
आज उनके सौन्दर्य का वरण होगा,
यामिनी मे रूप का अनावरण होगा।
दुर्वा-अच्छत-चंदन- रोली-पुष्प गंध से,
मेरे घर का मंगलमय वातावरण होगा।
03
आख फिर से अपना सजल कीजिए,
प्राणेश के लिए भी जगह कीजिए।
जो नयन चूमता हो तुम्हारा प्रिये,
याद उसको कभी बेवजह कीजिए।
04
आइए आप भी आभास कीजिए,
उनसे मिलकर उपहास कीजिये।
टूटे हुए हृदय को जोड़ता है पंकज,
बैठकर आप भी परिहास कीजिए।
05
तेरा सौन्दर्य खिलता हुआ गुलाब है,
चेहरा गीत गजल छंदो की किताब है।
आखों में कोई गौर से झाँके तो सही,
जिन्दगी के हर प्रश्न का यह जवाब है।
06
गीत का गजल से अनुबन्ध हो गया,
और स्वर का लय से सम्बन्ध हो गया।
तेरे कंचनकाया को छूकर के प्राणेश,
जिन्दगी का सुरभित छन्द हो गया।
07
मंदिरों का पावन भजन हो गया हूँ,
पितामह भीष्म का बचन हो गया हूँ।
तेरी कलाई जब से चूम लिया है मैने,
देखते-देखते ही मै रतन हो गया हूँ
08
रूप जब आखों मे उतर जाएगा,
चेहरा ऋतु शरद सा निखर जाएगा।
ओ दर्पण क्या देखेगा तेरे रूप को,
एक ही चोट मे वह बिखर जाएगा।
09
मन रखकर के हमे आकाश कर दो,
बनकर प्रेम का घन बरसात कर दो।
जनम-जनम का प्यासा पतझड़ हूँ,
छू कर हाथो से हमे मधुमास कर दो।
10
जीवन पथ पर धीरे – धीरे चलते रहे,
अपने सपनो का हम हवन करते रहे।
मीत जब प्रीति लिए गीत कोई गाते,
आह और वाह कर हम नमन करते रहे।
11
तुम पावन गीता रामायण पुराण हो प्रिये,
प्रसाद की कामायनी का संवाद हो प्रिये।
जिसे पढ़-पढ़कर जीवनका पंकज खिला,
वही रामचरितमानस की किताब हो प्रिये।
12
धीरे- धीरे ही वह मेरा काम कर रहे है,
धीरे- धीरे हमको बदनाम कर रहे हैं।
ओ वाणी कभी पावन नही हो सकती,
जो मीत की मर्यादा को नीलाम कर रहे हैं।
13
आज फिर उनकी कहानी लिख दिया,
खुद की जवानी उनकी रवानी लिख दिया।
लिखते- लिखते जब थक गया पंकज तो,
खुदको दीवाना उनको दिवानी लिख दिया।
14
जीवन मे मुझको अब कोई परवाह नही है,
घायल हूँ युग से पर मुख से आह नही है।
तुम चाहे जितना हंसो ठठाकर पंकज,
प्रिय की जीत यही है तो मेरी हार नही है।
15
गीत अपना गीत मेरा बेचकर चले आओ,
स्वर अपना स्वर मेरा देकर चले आओ,
आज मीत का उपहार लेना हो तुझे माननि,
तो प्यार अपना मेरा लेकर चले आओ।
— पंकज कुमार शुक्ल ‘प्राणेश’