धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

विश्व की सभी अपौरुषेय रचनायें ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण हैं

ओ३म्

अधिकांश मनुष्यों को यह नहीं पता कि संसार में ईश्वर है या नहीं? जो ईश्वर को मानते हैं वह भी ईश्वर के पक्ष में कोई ठोस प्रमाण प्रायः नहीं दे पाते। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में ईश्वर की उपस्थिति अस्तित्व के विषय में विचार कर स्वयं ही ईश्वर के होने के प्रमाण अपने सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों में प्रस्तुत किये हैं। संसार में ईश्वर विषयक जो नकारात्मक विचार पाये जाते हैं उनका एक कारण मतमतान्तरों की ईश्वर विषयक अतार्किक कुछ काल्पनिक मान्यतायें हैं। मत-मतान्तरों ने ईश्वर को स्वीकार तो किया परन्तु उसके अस्तित्व पर वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण रीति से विचार नहीं किया। उनके ग्रन्थों में ईश्वर का जो स्वरूप पाया जाता है उसे कोई भी सत्यान्वेशी, तर्क व विवेक बुद्धि से युक्त मनुष्य स्वीकार नहीं कर सकता। यही कारण था कि ऋषि दयानन्द ने अपने बाल्यकाल में पिता के कहने पर शिवरात्रि का व्रत तो किया परन्तु जब उन्होंने चूहों को मन्दिर में शिव की पिण्डी पर उछल-कूद करते देखा तो उन्होंने विचार किया कि सर्वशक्तिमान ईश्वर इन चूहों के इस प्रमाद पूर्ण आचरण को रोकता क्यों नहीं? उन्हें अपने इस प्रश्न का उत्तर अपने पिता व किसी विद्वान आचार्य तक से नहीं मिला। अतः उन्होंने ईश्वर के सत्यस्वरूप की खोज का संकल्प लिया। कालान्तर में उन्होंने विवाह बन्धन से बचने के लिये गृहत्याग किया और सभी धर्माचार्यों से ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने का प्रयत्न किया। उनकी ईश्वर विषयक जिज्ञासाओं का समाधान कालान्तर में हुआ। उनकी शंकाओं का समाधान व ईश्वर के साक्षात्कार की तृप्ति उन्हें योग के आठ अंगों को सिद्ध करने सहित मथुरा में गुरु विरजानन्द सरस्वती जी से वेद-वेदांग व्याकरण का अध्ययन करने सहित गुरु जी से प्राप्त हुई सत्यासत्य की परीक्षा की कसौटी को प्राप्त कर हुईं। इसके बाद उन्होंने संसार से अविद्या दूर करने सहित ईश्वर के सत्यस्वरूप का प्रचार करना ही अपने जीवन का उद्देश्य निर्धारित किया था। आज देश के अन्दर व बाहर की कुछ शक्तियां लोगों को परम्परागत अविद्या के मार्ग पर चलाने के लिये सक्रिय हैं। हमारे कुछ लोभी आचार्य व विद्वान भी स्वार्थपूर्ति के लिये उनके जाल में फंस जाते हैं और सत्य का प्रचार करने के स्थान पर भय व स्वार्थ से सत्य धर्म की विरोधी शक्तियों का साथ देते हैं। हमें षडयन्त्री तत्वों से बचकर व उनसे सावधान रहकर ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर देश देशान्तर में प्रचार करते हुए अविद्या को दूर करना है। यही मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य सिद्ध होता है। वेद ईश्वरीय ज्ञान और सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद प्रचार से ही संसार में अविद्या दूर होकर सत्य विद्या से युक्त मान्यताओं का प्रचार व स्थापन्न हो सकता है। इस कार्य को जो करते हैं उनसे सहयोग करना हम सब मनुष्यों का कर्तव्य है।

ईश्वर है, इसका प्रमाण यह सृष्टि है। इस सृष्टि की रचना ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते उनके पास एक ही उत्तर होता है कि यह सृष्टि अपने आप बन गई। सच्चे आस्तिक लोगों का उत्तर यह है कि अपने आप तो एक सूई या घर में रोटी बनाने का सारा सामान होते हुए जब रोटी नहीं बन सकती तब इतना विशाल ब्रह्माण्ड जिसमें सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह, उपग्रह, आकाश गंगायें, नक्षत्र तथा अग्नि, जल, वायु, आकाश, पर्वत, नदियां, मनुष्य आदि असंख्य प्राणी, अगणित वनस्पतियांओषधियांकन्दमूलफल आदि की रचना एक सुविचारित योजना के अनुसार अपने आप कैसे बन सकतें हैं? सृष्टि में ऐसा एक तो उदाहरण होना चाहिये जहां बिना निमित्त कारण को कोई सार्थक व उपयोगी रचना होती हो। यदि हम एक ईंट की दीवार बनाने की सभी सामग्री एकत्र कर रख दें तो क्या ऐसी सम्भावना है कि वह एक दो वर्ष या कुछ दशकों में आवश्यकता के अनुरूप एक दीवार का रूप ले ले? यदि बिना कर्ता के एक साधारण दीवार और रोटी नहीं बन सकती व ऐसा कोई अन्य पदार्थ नहीं बन सकता तो फिर इस ब्रह्माण्ड के बनने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतः ईश्वर है और वह इस सृष्टि की रचना, उत्पत्ति, पालन तथा संहार करता है। यह तर्क सिद्ध एवं प्रमाणिक तथ्य है।

सृष्टि के अतिरिक्त हम मनुष्यों को अनेक परिवेशों में उत्पन्न होता हुआ देखते हैं। कोई धनी के यहां जन्म लेता है जिसे जन्म से ही सभी प्रकार की सुख सुविधायें प्राप्त होती है। एक बच्चा एक निर्धन व्यक्ति की झोपड़ी में जन्म लेता हैं जहां उसे मां का दूध भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होता। उस बच्चे के मातापिता को भी भोजन नहीं मिलता। बच्चे को अच्छे वस्त्र मिलते हैं और ही सुख के अन्य साधन मकान, भोजन वस्त्र आदि। यदि सृष्टि के सभी काम परमात्मा के बिना अपने आप हो रहे होते तो सब मनुष्यों में ऐसा अन्तर होना सम्भव नहीं था। अतः इन उदाहरणों से ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है जिसका उल्लेख वेद व वैदिक साहित्य में सन्तोषजनक रूप में उपलब्ध है। मनुष्य के जन्म व परिस्थितियों में अन्तर का कारण जीवात्मा के पूर्वजन्म के कर्म होते हैं। मनुष्य को इस जन्म में जो सुख व दुख मिलते हैं उनका कारण भी उसका पूर्वजन्म व उसके कर्म ही सिद्ध होते हैं। यदि पूर्वजन्म व जीवात्मा के कर्म न होते तो यह अन्तर न होता। पूर्वजन्म, पुनर्जन्म तथा कर्म-फल सिद्धान्त को मान लेने पर मनुष्य की अलग अलग परिस्थितियों में जन्म के अन्तर, सुख व दुःख तथा मनुष्येतर प्राणियों के जन्म का कारण उनके पाप कर्मों की अधिकता होने का सिद्धान्त तर्कसंगत होने से सत्य सिद्ध होता है। अतः सृष्टि की रचना सहित जीवात्मा का भिन्न योनियों एवं परिस्थितियों में जन्म होना तथा उनके सुख व दुखों को देखकर सृष्टि में एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, चेतन, अनादि, अमर, नित्य, न्यायकारी सत्ता का होना सिद्ध होता है। यह सिद्धि कार्य कारण सिद्धान्त के अनुसार है। जहां कार्य होता हैं वहां उसका निमित्त चेतन कारण अवश्य होता है। जिस प्रकार बिना माता-पिता के पुत्र व सन्तानें नहीं होती, किसान व खेत के बिना फसल नहीं होती, उसी प्रकार से ईश्वर, जीव व प्रकृति का अस्तित्व स्वीकार किये बिना इस सृष्टि की रचना व उसका वर्तमान रूप में संचालन होना सम्भव नहीं हो सकता।

सृष्टि में हम गुण गुणी का सिद्धान्त भी देखते हैं। सभी गुण किसी द्रव्य के आश्रय से ही रहते हैं। सृष्टि की रचना में सर्वज्ञता, अनेक गुणों तथा शक्ति की आवश्यकता होती है। यह गुण शक्ति अवश्य ही किसी द्रव्य की होगी। वह द्रव्य ही ईश्वर है। वह ईश्वर कैसा है, इसका वर्णन वेदों में सर्वत्र उपलब्ध है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के नियमों में भी ईश्वर के कुछ गुण, कर्म व स्वभाव का वर्णन किया है। वह नियम यह है कि सब सत्य विद्यायें और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। आर्यसमाज के इन नियमों में ईश्वर के अनेक गुणों का वर्णन है। यह गुण जिस द्रव्य के आश्रय से रहते हैं उन्हीं का नाम ईश्वर है। यदि ईश्वर होता तो यह गुण भी होते। इससे भी ईश्वर का होना सिद्ध होता है। ईश्वर का एक गुण व सामथ्र्य सृष्टि बनाने के बाद सभी प्राणियों को अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न करना तथा मनुष्यों को वेदों का ज्ञान देना भी है। यह वेदज्ञान देने का काम ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता व प्राणी नहीं कर सकता। इससे भी ईश्वर का होना सिद्ध होता है। वेदों की मत मतान्तरों के ग्रन्थों से तुलना करने पर वेद की भाषा व ज्ञान सर्वोत्तम व सत्य सिद्ध होते हैं जबकि मत-मतान्तरों के मुख्य ग्रन्थ व उनकी भाषाओं में अनेक दोष देखने को मिलते हैं। मत-मतान्तरों की पुस्तकों में ईश्वर व जीवात्मा का सत्य, पूर्ण व तर्क से सिद्ध ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। अनेक मत-मतान्तर आजकल सत्य सिद्धान्तों व मान्यताओं का प्रचार न करके अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाने के उद्देश्यों से विश्व के लोगों का मतान्तरण कर रहे हैं जो कि उचित नहीं है। सारा संसार इसे मूक दर्शक की भांति देखता है। यह स्थिति चिन्ताजनक है।

संसार में हम देखते हैं कि यदि हमें अपने घर के तीन या चार मंजिल भवन में पानी चढ़ाना हो तो उसके लिये विद्युत पम्प की सहायता लेनी पड़ती है। पानी को टंकी में पहुंचाना पड़ता है। परमात्मा ने संसार में नारीयल के पेड़ बनाये हैं जो काफी ऊंचे होते हैं। इन वृक्षों में 25 से 40 फीट की ऊंचाई पर नारीयल लगते हैं। इन नारीयलों में भूमि का जल कैसे चढ़ता भर जाता है। इस प्रक्रिया में कोई पम्प उसके जैसा यन्त्र प्रयोग में नहीं लाया जाता। यह भी ईश्वर के होने का संकेत करता है। परमात्मा ने नाना प्रकार के फल व फूल बनाये हैं उनकी अद्भुद रचना भी ईश्वर के होने का प्रमाण है। एक ही खेते में ईख व मिर्च के पौधे आसपास लगते हैं। गन्ने मीठे तथा मिर्च तीखी होती है। एक ही भूमि में उत्पन्न अलग अलग पदार्थों के पृथक पृथक स्वाद, पौधों, फूलों व फलों की भिन्न भिन्न आकृतियां, गन्ध व भिन्न-भिन्न स्वाद होना भी इस प्रक्रिया को ईश्वरकृत सिद्ध करते हैं। ऐसे अन्य बहुत से उदाहरण दिये जा सकते हैं जिससे ईश्वर का होना सिद्ध होता है। कोई भी क्रिया या रचना बिना कर्ता के नहीं होती। जहां क्रिया है वहां कर्ता और जहां रचना है वहां रचयिता का होना सिद्ध है। इस आधार पर भी हम अपने अन्दर व बाहर तथा आसपास ईश्वर की आहट को अनुभव कर सकते हैं। सृष्टिकर्ता ईश्वर का चिन्तन व ध्यान कर हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य