बड़ी दूर थे तुम
जी चाहा कि पुकार लूं,
पर क्या करते
बड़ी दूर थे तुम ॥
आँखों में आकाश लिए
इच्छाओं का पाश लिए
कुछ करने की कोशिश में
बिके हुए अवकाश लिए
मशरूफ थे या
मजबूर थे तुम
फुरसत से मेरी
बड़ी दूर थे तुम ॥
अपनी ही क्रीड़ाओं में
सुखशोधित पीड़ाओं में
घिरे हुए नटनागर से
मुँहबोली ‘मीराओं’ में
खुद पर रीझे
मंसूर थे तुम
जद से मेरी
बड़ी दूर थे तुम ॥
— समर नाथ मिश्र