ग़ज़ल
कर्ज़ा लेकर गये बम्बई कर्ज़ा लेकर लौटे हैं,
सूखे-सूखे गाल रुआँसा मुखड़ा लेकर लौटे हैं।
पेट काटकर जमा किया जो मालिक लेकर भाग गया,
चप्पल डोरी बँधी उतारा कपड़ा लेकर लौटे हैं।
मुँह से लेकर पेट हमारा सब कुछ खाली-खाली है,
बस काग़ज़ पर नाम-पते का सिजरा लेकर लौटे हैं।
दो बच्चे हैं छोटे-छोटे अगले की भी आमद है,
मत पूछो तुम दर्द और हम क्या-क्या लेकर लौटे हैं।
खाने का सामान ले गये थे भरकर जिस बोरी में,
आज उसी बोरी में खाली डिब्बा लेकर लौटे हैं।
कान पकड़ते हैं अब वापस नहीं बम्बई जायेंगे,
किसी तरह से अपने को हम जिन्दा लेकर लौटे हैं।
आज बुरा है दिन अपना तो ‘गुलशन’ कोई बात नहीं,
कल अच्छा हो आँखों में यह सपना लेकर लौटे हैं।
— डॉ अशोक ‘गुलशन’