सत्यार्थप्रकाश अविद्या दूर करने तथा विद्या वृद्धि करने वाला ग्रन्थ है
ओ३म्
सत्यार्थप्रकाश ऋषि दयानन्द द्वारा सन् 1874 में लिखा गया ग्रन्थ है। ऋषि दयानन्द ने सन् 1883 में इसको संशोधित किया जिसका प्रकाशन उनकी मृत्यु के पश्चात सन् 1884 में हुआ था। यही ग्रन्थ आजकल ऋषि की प्रतिनिधि संस्था आर्यसमाज द्वारा प्रचारित होता है। सत्यार्थप्रकाश का उद्देश्य इसके नाम में ही निहित है। असत्य को दूर कर सत्य के अर्थ का प्रकाश करने के लिये इसका निर्माण किया गया था। अपने इस उद्देश्य व लक्ष्य में यह ग्रन्थ काफी सीमा तक सफल रहा है। सभी लोगों की सत्य की खोज करने तथा सत्य को ही स्वीकार कर उसका आचरण करने में प्रवृत्ति नहीं होती। यदि होती, तो संसार के प्रत्येक मनुष्य ने अविद्यायुक्त ग्रन्थों का त्याग कर सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन किया होता। इस ग्रन्थ से सत्य को प्राप्त होकर सभी मनुष्यों ने जीवन निर्माण में उपयोगी व आवश्यक इसकी शिक्षाओं को ग्रहण कर लिया होता। संसार में जन्म लेने वाले मनुष्यों की प्रकृति व प्रवृत्तियां भिन्न भिन्न होती हैं। सत्य ज्ञान की प्राप्ति का सभी मनुष्यों को न तो बोध होता है और न ही देश देशान्तर में प्रचलित मत-मतान्तरों की धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं में सत्य ज्ञान की प्राप्ति व आचरण की प्रेरणा ही की जाती है। सभी मनुष्य जिस मत-मतान्तर को मानने वाले परिवार में जन्म लेते हैं, उसी की मान्यताओं को बिना विचार किये स्वीकार कर लेते हैं। इसी में उनका सारा जीवन बीत जाता है। वह विचार नहीं करते कि क्या उनके मत के सभी विचार सत्य एवं पूर्ण हैं? सत्य का अनुसंधान किये बिना उनका काम चल जाता है। इस कारण वह सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिये विशेष प्रयत्न नहीं करते और सद्धर्म के पालन से होने वाले धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से वंचित रह जाते हैं।
ऋषि जीवन में यह देखने को मिलता है कि वह कुछ विशेष संस्कार और प्रकृति लेकर उत्पन्न हुए थे। उनके पिता शिवभक्त थे। शिवरात्रि के अवसर पर उनके पिता ने उनको कुल परम्परा के अनुसार शिवरात्रि का व्रत रखने को कहा था। वह 14हवें वर्ष की आयु में चल रहे थे। पिता ने उनको शिव पुराण पर आधारित कथा सुनाई थी। बालक की उस कथा में रुचि उत्पन्न हुई और उन्होंने बताये गये सभी विधि विधानों का पालन करते हुए व्रत को किया। शिवरात्रि की रात्रि को जब वह अपने पिता के साथ गांव के निकट के मन्दिर में सामूहिक जागरण के लिये गये तो वहां देर रात्रि में भक्तों के सो जाने पर भी कथा की शिक्षा के अनुसार जागते रहे थे। मन्दिर में विद्यमान शिव की पिण्डी पर उनकी टकटकी लगी हुई थी। वह उस शिव लिंग की मूर्ति को ही सचमुच का शिव जान कर व्यवहार कर रहे थे। उन्होंने देखा की मन्दिर के अन्दर बिलों से कुछ चूहे निकले और उन्होंने शिवमूर्ति पर विचरण करना शुरु कर दिया। इससे उनके बाल मन में शंका हुई। चूहे बिना किसी बाधा स्वछन्दता से मूर्ति के ऊपर नीचे विचरण व क्रीड़ा कर रहे थे। इससे बालक दयानन्द के हृदय में उस शिव की मूर्ति के चेतन व सर्वशक्तिमान होने में शंका उत्पन्न हो गई थी। एक छोटा बच्चा भी शरीर पर मक्खी बैठने पर उसे हाथ से हटा कर भगा देता है परन्तु शिव चूहों को हटाने की कोई चेष्टा नहीं कर रहे थे। दयानन्द जी ने अपने सोते हुए पिता को नींद से जगाकर शिव की शक्तियों का उल्लेख कर अनेक प्रसन्न किये और उस मूूर्ति को शिव मानने से मना कर दिया। इस घटना की प्रेरणा से उन्होंने अपने जीवन में किसी भी बात व परम्परा को बिना सत्यासत्य का विचार किये और परीक्षा किये मानना छोड़ दिया था। इस प्रकार के संस्कारों व स्वभाव ने ही उन्हें सच्चे शिव वा ईश्वर की खोज सहित मृत्यु आदि के सत्यस्वरूप को जानने व उस पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा की थी। इस कार्य में वह सफल रहे और इससे प्राप्त ज्ञान व अनुभव को उन्होंने देश व संसार के लोगों का उपकार करने के लिये जन जन में प्रचार किया। उन्होंने वेदों का अध्ययन भी किया था और अपने ज्ञान व अनुभवों को सर्वथा वेदानुकूल पाया था। इस कारण उन्होंने ईश्वर प्रदत्त वेदज्ञान का प्रचार किया और इसी ज्ञान से युक्त सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की थी।
सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में मनुष्य के मन में उठने वाली सभी शंकाओं का तर्क व युक्तियों सहित वेद ज्ञान के आधार पर समाधान किया गया है। सत्यार्थप्रकाश की मान्यतायें सत्य हैं, इसका अनुभव पाठक की आत्मा सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर करती है। इस ग्रन्थ का अध्ययन करते समय इस ग्रन्थ का पाठक अपने सभी पूर्वाग्रहों को अपने मन से निकाल देना चाहिये। पूर्वाग्रह युक्त मनुष्य किसी उपदेशक व उसकी पुस्तक की सत्य बातों से भी पूर्णतया लाभान्वित नहीं होता। सत्य ज्ञान के प्राप्त करने के लिये मन की शुद्धता सहित पूर्वाग्रहों से मुक्त मन की भी आवश्यकता होती है। इसके साथ ही ईश्वर की कृपा की भी आवश्यकता होती है। जब यह सब बातें एक साथ होती हैं तो मनुष्य का कल्याण होता है। सत्यार्थ इस सृष्टि के सत्य रहस्यों से परिचित कराता है। ईश्वर व जीवात्मा विषयक सत्य व यथार्थ ज्ञान इसके पाठक को प्राप्त होता है। आत्मा की सभी भ्रान्तियां दूर हो जाती है। यह केवल हमारा अथवा किन्हीं एक दो व्यक्तियों का अनुभव नहीं है अपितु बड़े बड़े विद्वान स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार सहित लाखों व करोड़ों लोगों का ऐसा ही अनुभव है। यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि इस संसार की सबसे महत्वपूर्ण व मूल्यवान वस्तु क्या है? इसका उत्तर है कि ‘सत्य ज्ञान’ ही संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु है। यह सबसे मूल्यावान व उपयोगी वस्तु हमें सत्यार्थप्रकाश के माध्यम से लोकभाषा हिन्दी में प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ का जो मनुष्य जितना अध्ययन करता है उसको उतना ही अधिक लाभ होता है।
देश की आजादी की सबसे प्रथम प्रेरणा भी इसी ग्रन्थ से देशवासियों से मिली थी। उस समय न तो कांग्रेस जैसे किसी संगठन की स्थापना हुई थी और न ही किसी ने सोचा था कि देश को आजाद कराना है वा देश आजाद हो सकता है। सत्यार्थप्रकाश से ईश्वर व आत्मा का सत्य स्वरूप प्राप्त होता है। इस ज्ञान प्राप्ति से मनुष्य ईश्वर की उपासना करके ईश्वर साक्षात्कार कर सकता है और जीवन मरण के बन्धनों को काटकर मुक्त होकर दुःखों से सर्वथा रहित होकर परमसुख की मोक्षावस्था को प्राप्त हो सकता है। इस मोक्षावस्था को प्राप्त होने पर अविनाशी व नित्य आत्मा के जन्म व मरण अथवा पुनर्जन्म का चक्र भी रुक जाता है। ऐसी लाभकारी विद्या प्रदान करने वाला ऋषि दयानन्द का ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश है। जिसने इस ग्रन्थ का अध्ययन नहीं किया वह अभागा ही कहा जा सकता है। जिन मनुष्यों ने इस ग्रन्थ को पढ़ा परन्तु इसकी शिक्षाओं में आचरण में लाकर लाभ नहीं उठाया, वह भी अभागे व्यक्ति ही सिद्ध होते हंै।
सत्यार्थप्रकाश केवल ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान ही नहीं कराता अपितु सम्पूर्ण जीवन दर्शन प्रदान करता है। सत्यार्थप्रकाश में वेदों का पोषण हुआ है। वेदों से ज्ञान सामग्री लेकर ही इस ग्रन्थ का सृजन किया गया है। वेद सब सत्य विद्याओं का ग्रन्थ है। सत्यार्थप्रकाश की प्रमुख विशेषता भी यही है कि यह अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर करता तथा विद्या का प्रकाश करता है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर इसके प्रभाव में जीवन जीने से मनुष्य की चहुंमुखी उन्नति होती है। ऋषि दयानन्द का पूरा जीवन सत्यार्थप्रकाश की शिक्षाओं से युक्त था। हमारे प्राचीन काल के सभी ऋषि मुनि, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण तथा आचार्य चाणक्य आदि भी वेदों की मान्यताओं को ही मानते थे और उसी से वह महानता को प्राप्त हुए थे। सत्यार्थप्रकाश का पाठक एवं इसकी शिक्षाओं को आचरण में लाने वाला मनुष्य भी महान व उत्तम पुरुष होता है बशर्ते वह उसके अनुसार आचरण करे। सत्यार्थप्रकाश की प्रेरणा से ही स्वामी श्रद्धानन्द मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानन्द बने। उन्होंने विश्व में चर्चित गुरुकुल कांगड़ी खोला था, देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जामा मस्जिद के मिम्बर से वेदमन्त्र बोल कर उपदेश किया था तथा बड़े पैमाने पर दलितोद्धार और शुद्धि का कार्य किया था। अमृतसर के ‘गुरु का बाग मोर्चे’ व सत्याग्रह में जाकर अकाल तख्त से भी सिखों को सम्बोधित किया था तथा इसके लिए उन्हें एक वर्ष चार महीने की कारावास की सजा सुनाई गई थी। उनके देश हित के कामों की लम्बी सूची है। यह सब सत्यार्थप्रकाश और ऋषि दयानन्द के जीवन की प्रेरणा के कारण सम्भव हुआ था। सभी महापुरुषों ने सत्यार्थप्रकाश से लाभ उठाया है। यदि सत्यार्थप्रकाश को देशवासियों वा हिन्दुओं ने ही अपना लिया होता तो देश की भौगोलिक स्थिति एवं राजनीतिक व्यवस्था कुछ भिन्न और अधिक सुखदायक होती जहां सभी गो, बकरी आदि पशुओं को भी पूर्ण अभय प्राप्त होता। देश में शराब की नदियां न बहती। देश में देशविरोधी वर्ग उत्पन्न न होता। सबके लिये समान नियम होते और सब सत्य के मार्ग पर चलते व चलाये जाते। अनेक दृष्टि से विचार करने पर सत्यार्थप्रकाश संसार का सर्वोत्तम ग्रन्थ सिद्ध होता है। आश्चर्य होता है कि इतना हितकारी व सत्य से युक्त सिद्धान्तों से युक्त होने पर भी लोग ने इस ग्रन्थ का क्यों त्याग कर रखा है?
सत्यार्थप्रकाश से विद्या का प्रकाश होकर मनुष्य की सभी प्रकार की अज्ञानता व बुराईयां भी दूर हो सकती हैं। मनुष्य असाधु से साधु बन सकता है। सत्यार्थप्रकाश को अपनाने से देश व समाज सभी को लाभ होता है। सत्यार्थप्रकाश का पाठक देश विरोधी कृत्यों व षडयन्त्रों को भली प्रकार से समझता है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य विधर्मियों द्वारा छल, बल, लोभ आदि द्वारा किये जाने वाले धर्मान्तरण से भी बच जाता है। हम यह समझते हैं कि देश को धर्मान्तरित होने से यदि किसी ने बचाया है तो वह सत्यार्थप्रकाश की शिक्षाओं व इसके अनुयायियों के वेद प्रचार ने ही बचाया है। सत्यार्थप्रकाश ने वेद विरोधियों के सभी षडयन्त्रों को विफल कर दिया है। मनुष्य जीवन हमें सत्य ज्ञान प्राप्त करने व उसके अनुरूप व्यवहार करने के लिये मिला है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ इस कार्य में सभी मनुष्यों का सहायक हो सकता है। सभी को इस ग्रन्थ को अपनाना व इससे लाभ उठाना चाहिये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य