कविता
रिक्शे से है कमाई, रिक्शे से है गुजारा
रहने को घर नहीं है, सारा जहाँ हमारा
रिक्शा ही अपना घर है, रिक्शे पे हमसफर है
खाने की पोटली है, पानी की बोटली है
कपड़े भी साथ अपने, चादर भी साथ ली है
बच्चे भी साथ अपने, भाई भी है हमारा
हाँ खुद से खींचते हैं, स्वेदों से सींचते हैं.
आये अगर चढ़ाई, भाई भी खींचते हैं.
पत्नी उतर है जाती, बच्चे को ही चढ़ाती
फूलों सा ही बदन है, ये गुलिस्ताँ हमारा
निकले हैं हम सफर पर, मंजिल कहीं डगर पर
कोई हमें डराते, कोई हौसला बढ़ाते
ऐसा ही ये वतन है, हिन्दोस्तां हमारा