कविता

कविता

बैठे नयनों घुटनों के बल
रहे फ़ीचते मन के मैल…….
गिर गिर कितने सारे जलकण
अंतिम पथ के धोते शैल….

उखड़ बिखर संगी बन चलती
फिर फिर गति स्वासों की
मिटा रही अविराम भित्ति से
स्मृति अंधियारी रातों की…….

मेहनतकश हाथों पर लिखता
अंतहीन पीड़ाएँ कौन
विचर रहा नस नस अति विह्वल
क्रंदन करता विचलित मौन…….

दुःख सुख राग द्वेष के झूले
पथ भूला मन विराट इक मेला
नचा रहा डुगडुग कर जीवन
नटवर कोई खेले खेला ……..

भीतर छुप धड़के वहीअपना
बाहर सब मतलब के साथ
और कोई अब बात करो प्रिय
हो विस्मृत बीती हर घात……..

— प्रियंवदा अवस्थी

प्रियंवदा अवस्थी

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से साहित्य विषय में स्नातक, सामान्य गृहणी, निवास किदवई नगर कानपुर उत्तर प्रदेश ,पठन तथा लेखन में युवाकाल से ही रूचि , कई समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित , श्रृंगार रस रुचिकर विधा ,तुकांत अतुकांत काव्य, गीत ग़ज़ल लेख कहानी लिखना शौक है। जीवन दर्शन तथा प्रकृति प्रिय विषय । स्वयं का काव्य संग्रह रत्नाकर प्रकाशन बेदौली इलाहाबाद से 2014 में प्रकाशित ।