कविता
बैठे नयनों घुटनों के बल
रहे फ़ीचते मन के मैल…….
गिर गिर कितने सारे जलकण
अंतिम पथ के धोते शैल….
उखड़ बिखर संगी बन चलती
फिर फिर गति स्वासों की
मिटा रही अविराम भित्ति से
स्मृति अंधियारी रातों की…….
मेहनतकश हाथों पर लिखता
अंतहीन पीड़ाएँ कौन
विचर रहा नस नस अति विह्वल
क्रंदन करता विचलित मौन…….
दुःख सुख राग द्वेष के झूले
पथ भूला मन विराट इक मेला
नचा रहा डुगडुग कर जीवन
नटवर कोई खेले खेला ……..
भीतर छुप धड़के वहीअपना
बाहर सब मतलब के साथ
और कोई अब बात करो प्रिय
हो विस्मृत बीती हर घात……..
— प्रियंवदा अवस्थी