“रोजगार” इक अंगार,
जिसमें दिन-रात,
मैं जलता हूँ।
कभी खुली,
तो कभी छिपी,
बेरोजगारी में मैं पलता हूँ।
“रोजगार” इक मंझधार,
जिसमें न डूबा,
औ न उतराना हूँ।
कभी तंगी,
तो कभी मंदी,
के जंजाल में मैं फंसता हूँ।
“रोजगार” इक उपचार,
है हर समस्या का समाधान।
परन्तु बेरोजगारी के इस दौर में,
कभी ये मुझको,
तो कभी मैं इसको,
नहीं फलता हूँ।
रोजगार की अंधी दौड़ में,
मैं अपने सपनों मूल्यों ज़रूरतों को,
तह बनाके कोने में रखता हूँ।
“रोजगार” इक माँग,
दिन-रात उसी के अनुसार बस ढलता हूँ…
— ज्योति अग्निहोत्री ‘नित्या’