सामाजिक

मध्यकालीन सामंती समाज और कबीर का स्त्री चिंतन

मध्यकाल के सामंती समाज में स्त्री पराधीनता का जीवन जीने को अभिशप्त थी।सामंती जड़ता की सारी मार अंततः स्त्री को ही खेलनी पड़ती थी।धर्मतंत्रात्मक समाज में स्त्री के लिए स्वतंत्रता की सांस लेना स्वप्न लेने के बराबर था।धार्मिक और सामाजिक कानूनों,परम्पराओं और रूढ़ियों ने स्त्री को इतना जकड़ रखा था कि वह इन से मुक्ति के लिए  संघर्ष करना उस के लिए असम्भव जैसा था।मध्यकालीन धर्मतंत्रात्मक सामंती राज्य ने इन कानूनों को वैधता देते हुए इन की रक्षा का जिम्मा ले रखा था। वर्णजातिव्यवस्था की मध्यकालीन जकड़न में शुद्र और स्त्री के लिए मुक्ति के बारे में सोचना का कोई गुंजाइश नहीं थी।स्त्री मध्यकालीन समाज में केवल भोग्य और आनन्द की वस्तु थी,धर्म के लिए नरक का द्वार और राज्य के लिए भी केवल विलासिता और मनोरंजन का साधन।ऐसी स्थिति में सर्वहारा स्त्री अपनी मुक्ति का इतिहास रचने में कैसे  समर्थ होती…?इतिहासकार प्रो इरफान हबीब ने सही लिखा है कि “स्त्री जाति के इतिहास के विषय में हमारे पास उपलब्ध जानकारी बहुत कम है,जो है ,वह भी बहुत अस्त -व्यस्त और अव्यवस्थित है।इस संदर्भ में स्वयं स्त्रियों द्वारा दी गई सूचना भी बहुत कम है।”1लेकिन भक्ति आंदोलन के अंतर्गत कबीर और मीरा ने अपनी अपनी भक्ति के आवरण के भीतर जो सामाजिक सवाल उठाए हैं,उस से मध्यकालीन सामंती समाज,धर्म और राज्य के स्तर पर दलितों और स्त्रियों की वास्तविक स्थिति का पता चलता है।कबीर और मीरा के लिए भक्ति मध्यकाल में सामाजिक क्रांति का अस्त्र है।इस तरह कबीर और मीरा के लिए भक्ति केवल ईश्वर की आराधना मात्र नहीं है,उस में मध्यकालीन समाज की विषयवस्तु भी है।कबीर और मीरा की इस क्रांति का मध्यकाल के साथ साथ आज भी महत्व है।किसी जाति या वर्ग को इतिहास से काट कर हाशिए में डाल देना ,खुद में एक ऐतिहासिक त्रासदी है,साथ ही इस ऐतिहासिक त्रासदी को बयां करने के लिए सब से प्रामाणिक साक्ष्य भी।कबीर और मीरा के साहित्य को हम इसी नज़रिए से एक ऐतिहासिक साक्ष्य या प्रमाण की तरह मान कर चल रहे हैं।
मध्यकाल के सामंती समाज,धर्म,राज्य और सँस्कृति में स्त्री की भूमिका पूरी तरह नगण्य और पराधीनता की थी।संस्कृत और फ़ारसी के साहित्य में भी उस की स्थिति  कोई बहुत अच्छी नहीं थी।धार्मिक प्रभुसत्ता (रिचुअल पावर) ने स्त्री का शोषण,दमन करने और उसे पराधीन बनाने वाली समूची सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक और राजनीतिक संरचना को वैधता और संरक्षण प्रदान करती थी।ऐसी स्थिति में उस में परिवर्तन के लिए कोई जगह नहीं दिखती।इतिहासकार प्रो इरफान हबीब ने मध्यकालीन भारत के सामाजिक व सांस्कृतिक परिदृश्य के बारे में लिखा है —“हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं में मूलभूत परिवर्तन की क्षमता हमेशा ही सीमित रही।”2 जब कि इसी समय के यूरोप में परिवर्तनकारी विचारों की धूम मची हुई थी।इसी संदर्भ में प्रो इरफ़ान हबीब आगे लिखते हैं—-“हमें यहाँ योरोप से प्राप्त होने वाले विचारों के महत्व को स्वीकार करना चाहिए।वहाँ सब से महत्वपूर्ण और बुनियादी बात यह हुई कि स्वयं स्त्रियों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद की।नारी मुक्ति 1789 ई0 की फ्रांसीसी क्रांति का एक अविभाज्य अंग थी।1790 ई0 में लड़के और लड़की को विरासत में समान अधिकार मिले।1792 ई0 में तलाक के प्रावधान में पत्नी को बड़ी सीमा तक संरक्षण प्रदान किया गया था।1793 ई0 और 1794 ई0 में लड़के और लड़कियों के लिए अनिवार्य रूप से प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की गई।वस्तुतः मानवता के विकास के इतिहास में इस तरह का एक अभूतपूर्व प्रस्थान बिन्दु था।”3 वर्णजातिव्यवस्था का संरक्षक भारतीय सामंती राज्य यह परिवर्तन करने में भले ही सक्षम न रहा हो,धर्म और समाज,संस्कृति और साहित्य भले ही इस तरह के किसी भी परिवर्तन के मार्ग में बाधक रहा हो,लेकिन मध्यकाल की ऐतिहासिक परिस्थितियों ने भक्ति आंदोलन का मार्ग प्रशस्त कर परिवर्तन को अवश्यम्भावी बना दिया था।मध्यकाल में इस्लाम के आगमन से भारत के आंतरिक  इतिहास में जिस तरह का हस्तक्षेप किया ,उस से सिर्फ़ राजनीतिक जड़ता ही नहीं टूटी बल्कि  एकदम नए तरह की सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौतियों के संदर्भ में नए तरह की सामाजिक ,धार्मिक और सांस्कृतिक गतिशीलता के वातावरण भी निर्माण हुआ।भक्ति आंदोलन इसी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया की उपज था।
संत आंदोलन के पूर्व समाज में जिस तरह के विभिन्न धार्मिक सम्प्रदाय फैले हुए थे,उन की स्थिति स्त्री के सब से ज्यादा त्रासद थी,कारण ये सम्प्रदाय साधना के मार्ग में बाधक मानते हुए भी तरह तरह से स्त्री का ही शोषण करते थे।पूर्व मध्यकाल में विभिन्न धर्म सम्प्रदायों के भीतर तन्त्र मार्ग का प्रवेश हुआ,उस से धर्म के अंतर्गत  स्त्री शोषण पहले से कई गुना बढ़ गया।इतिहासकार प्रो रामशरण शर्मा ने तन्त्र सम्प्रदाय की समाजार्थिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए इस के अंतर्गत स्त्री शोषण के सामाजिक और आर्थिक कारणों को उजागर किया है।प्रो शर्मा ने लिखा है कि उस समय के प्रमुख धार्मिक सम्प्रदायों,यथा,बौद्ध,जैन,शैव,शाक्त और वैष्णव में तन्त्र सम्प्रदाय का फैलाव हो चुका था।”3 प्रियदर्शिनी विजयश्री ने अपनी पुस्तक”देवदासी या धार्मिक वेश्या? :एक पुनर्विचार” (2010) में देवदासी प्रथा यानी धार्मिक वेश्यावृत्ति के इतिहास और उस के अंतर्गत स्त्रियों के शोषण का ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया है।इस पुस्तक के “परिचय” में प्रियदर्शिनी विजयश्री ने लिखा है कि ” यहाँ (देवदासी प्रथा को) “धार्मिक वेश्यावृति” का प्रयोग इस बात पर ज़ोर डालने के लिए किया गया है कि मंदिर स्त्री की यौन अस्मिता का हिन्दू धर्म में आदर्श के रूप में देखा जाता है।इसलिए इसे शब्दाडम्बर या एक देशी प्रथा को औपनिवेशिक सत्ता द्वारा गलत रूप में समझे जाने का परिणाम न माना जाए।वास्तविकता तो यह है कि आज के समय में प्रचलित शब्द “देवदासी” को औपनिवेशिक-पूर्व अवधि के दौरान कहीं उल्लेख नहीं मिलता है।प्राचीन और मध्यकाल के साहित्यिक और पुरालेखीय सामग्रियों में इन स्त्रियों के लिए सुले,सानी, भोगम और पात्रा जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है।कन्नड़ और तेलगु में इन का अर्थ वेश्या होता है।इन दोनों ही भाषा क्षेत्रों में इस प्रथा की पुष्टि करने वाले आरम्भिक स्रोतों से ही हम इन शब्दों का प्रयोग होते पाते हैं।इस प्राक या वास्तविक अस्मिता का खयाल रखते हुए ही “धार्मिक वेश्यावृत्ति”शब्द का यहाँ प्रयोग किया जा रहा है न कि “देवदासी”शब्द का,जो अकादमिक जगत में सब से ज्यादा लोकप्रिय है।दरअसल देवदासी शब्द इन स्त्रियों की वास्तविक या मूल अस्मिता की परदापोशी करता है,जब कि धार्मिक वेश्यावृत्ति में यह बची रहती है।।औपनिवेशिक अवधि के दौरान ही संस्कृतनिष्ठ शब्द देवदासी के चलन ने जोर पकड़ा।इसे उन बुद्धिजीवियों ने उछाला जो एक निर्णायक ऐतिहासिक घड़ी में अपने सचेत सुधारवादी कार्यक्रम के तहत मंदिर की वेश्याओं की अस्मिता की पुनर्रचना में जुटे हुए थे।धार्मिक वेश्यावृत्ति उस धार्मिक मान्यता का दृष्टांत है जो ‘सेक्स को आध्यात्मिक मिलन और संभोग को मोक्ष का मार्ग’मानती है।”4 इस तरह देवदासी प्रथा मूलतः धार्मिक वेश्यावृत्ति थी,जिसे औपनिवेशिक दबाव में “देवदासी ” शब्द दे कर बचाने और महिमामण्डित करने की कोशिश की गई।ज़ाहिर है इस देवदासी यानी धार्मिक वेश्यावृत्ति के धार्मिक आवरण प्रदान करने का काम उपर्युक्त सभी धार्मिक सम्प्रदायों ने दिया।और यह मंदिर संस्था की खास विशेषता बन गई।दक्षिण के आलवार आंदोलन के समय से यह मंदिरों की शोभा बनी होगी।कबीर जो भारत में इस्लाम के आगमन की ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज थे, अपने समय में इस सभी को देखा और अनुभूत किया होगा,तभी तो कबीर ने स्पष्ट रूप से कहा  —–
 “भगति बिगारी कामियाँ।” 5
 इन के धार्मिक और आध्यात्मिक प्रतीक और चरित्र भी इन कामी लोगों के प्रेरणा स्रोत थे——“देव चरित सुनौ रे भाई।” 6
मध्यकाल के समाज में सामंती भोग और विलासिता के प्रसार के चलते घर,परिवार और समाज में सदाचार का संकट उत्पन्न हो गया था,तभी तो कबीर ने देखा कि वेश्यावृत्ति के फैलाव के चलते घर,परिवार और समाज टूट रहे थे।कबीर ने लिखा है—-
“बाप पूत कै एकै नारी,एकै माय बियाय।
ऐसा पूत सपूत न देखा,बापहि चीन्है धाय।।” 7
 कबीर ने ऐसे ही समय में स्त्री -पुरुष सम्बन्धों यानी गार्हस्थिक क्षेत्र के साथ साथ धार्मिक या आध्यामिक क्षेत्र में  सदाचार का सवाल उठाया।इस के उन्होंने बुरी स्त्री और बुरे पुरुष दोनों की भर्त्सना की।और सदाचारी  स्त्री और सदाचारी पुरुष की प्रशंसा की।कबीर खुद गृहस्थ हैं, और गृहस्थ  होने के कारण अपनी पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेवारी समझते हैं।यही कारण है कि कबीर खुद सदाचारी होने के साथ साथ अपने सदाचारी ईश्वर को ले आते हैं।कबीर ने अपने समय में योगियों,संन्यासियों और वैरागियों के  पाखण्ड को भी देखा था,इसलिए कबीर ने योगी को गृहस्थ बनाने की मांग करते हुए कहा—-
“अवधू भूले को घर लावै।” 8
इस तरह कबीर ने समाज और धर्म ,दोनों क्षेत्रों में दुराचार की स्थितियों को देखा और दोनों ही क्षेत्रों में सदाचार की जोरदार माँग की।घर के साथ साथ भक्ति यानी साधना के क्षेत्र में व्यभिचार की मनाही की और कहा कि व्यभिचार साधना और मुक्ति के मार्ग में सब से बड़ी बाधा है—-
“काम स्वाद कियो व्यभिचारा,राम रहा उनहू ते न्यारा।” 9
कबीर के स्त्री चिंतन को इन्हीं परिस्थितियों के भीतर से विकसित हुआ है ।
कबीर ने मध्यकालीन सामंती समाज में अपनी निर्गुण विचारधारा के तहत सामाजिक समानता की बात कर के मानव मात्र की समानता को स्थापित किया।समाज के साथ साथ कबीर ने स्त्री -पुरुष सम्बन्धों के क्षेत्र में भी विषमता देखी और स्त्री व पुरुष दोनों के व्यभिचार और दुराचार का विरोध करते हुए दोनों के लिए  सदाचार की वकालत की।इस तरह कबीर ने मध्यकाल में जारकर्म की संस्कृति के ख़िलाफ़ महा संग्राम छेड़ कर कमज़ोर हो रही विवाह संस्था को बचाने का आह्वान किया।लेकिन हिंदी आलोचना कबीर के स्त्री चिंतन को अंतर्विरोधी मानती है अथवा पूरी तरह स्त्री विरोधी।कुछ स्त्रीवादी महिला आलोचकों ने तो कबीर के यहाँ पितृसत्ता की ही खोज कर डाली है।कबीर को स्त्री विरोधी मानने वालों में प्रमुख आलोचक हैं :मैनेजर पांडेय,सूरज पालीवाल,पुरुषोत्तम अग्रवाल, गोपेश्वर सिंह,कुमकुम संगारी तो कबीर को स्त्री विरोधी न मानने वालों में  डा धर्मवीर,कँवल भारती आदि हैं।
कबीर ने एक साथ आध्यात्मिक ,सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्र में क्रांति की।सगुण वर्णवादी ईश्वर के समानांतर समतामूलक निर्गुण ईश्वर की स्थापना की और एकेश्वरवाद के आधार धार्मिक और सामाजिक एकता का मार्ग प्रशस्त किया।एक ही ईश्वर ने सब को बनाया है ,इसलिए सब समान और बराबर हैं।कबीर के ईश्वर ने वर्णव्यवस्था की रचना नहीं की, उस ने मानव मात्र को समान और बराबर बनाया।इस तरह कबीर ने एकेश्वरवाद के माध्यम से हर तरह के मानवीय विभाजन का विरोध कर मानव मात्र की समानता स्थापित की।कबीर के चिंतन  में समस्त मानव जाति एक है।कबीर ने अपनी निर्गुण विचारधारा से धार्मिक और सामाजिक विषमता का प्रतिरोध कर सम्पूर्ण मानव जाति की एकता का मार्ग प्रशस्त किया।कबीर के बाद सगुण ईश्वर की अवधारणा के आधार फिर से वर्णव्यवस्था स्थापित करने की कोशिश की गई।सूरदास के कृष्ण भले ही गीता और पुराणों के कृष्ण से अलग दिखाई पड़ते हों, लेकिन है नहीं।सूरदास  कृष्ण और ग्वालबाल के आपसी खेल में भेदभाव न करने की बात कहते हों—–“खेलन  में को काको गुसाईंया।” 10
लेकिन सूरदास के कृष्ण वर्णव्यवस्था के ख़िलाफ़ कभी कुछ नहीं कहते।इसी तरह सूरदास की गोपियाँ कृष्ण से प्रेम करने हेतु स्वतन्त्र हों लेकिन समाज में ऐसे प्रेम की  स्वतंत्रता उन्हें हासिल नहीं है।हिंदी आलोचना कृष्ण और गोपियों के प्रेम को भले ही स्वतंत्रता की अवधारणा के रूप में देखती हो,लेकिन समाज में इसे इस रूप में कभी नहीं ग्रहण किया गया।उत्तर- भक्तिकाल में और उस के बाद आए रीतिकाल में प्रेम की इस स्वच्छन्द अवधारणा को बड़ा गर्हित रूप दिया गया।तुलसीदास ने सामाजिक समानता की अवधारणा को कलयुग कहा क्यों कि इस से वर्णव्यवस्था के नष्ट होने का मार्ग प्रशस्त हुआ।तुलसीदास ने समानता पर ज़ोर देने वालों की कड़ी निंदा और भर्त्सना की।इसी को देखते हुए गजानन माधव मुक्तिबोध ने सगुण धारा को निर्गुण धारा के ख़िलाफ़ प्रतिक्रांति माना और लिखा कि “…भक्ति आंदोलन जिस पर प्रारम्भ में निम्न जातियों का जोर था,,उस पर अब ब्राह्मणवाद पूरी तरह छा गया और सुधारवार के विरुद्ध पुराण मतवाद की विजय हुई।” 11
डॉ मैनेजर पांडेय ने मध्यकाल के सन्त -भक्त कवियों ,कबीर,जायसी,सूर, तुलसी और मीरा की स्त्री -दृष्टि की तुलना करते हुए कबीर,जायसी एवं तुलसी की स्त्री दृष्टि को सामंती रूढ़ियों में जकड़ी हुई  तथा सूरदास और मीराबाई की स्त्री दृष्टि को प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी माना है।डॉ पांडेय का कहना है कि”यद्यपि कबीर की सामाजिक चेतना अत्यंत प्रखर है,लेकिन स्त्री सम्बन्धी विचारों पर उस युग की गहरी छाया है।”12 प्रमाणस्वरूप डॉ पांडेय कबीर के नाम से प्रचलित निम्नलिखित साखी को उदधृत करते हैं——–
“नारी कुंड नरक का,बिरला थामे बाग।
कोई साधु जन ऊबरे, सब जग मुआ लाग।।” 13
डॉ पांडेय कबीर को स्त्री सम्बन्धी विचारों की दृष्टि से तुलसी के समकक्ष पाते हैं,और लिखते हैं—-“सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक विश्वास सम्बन्धी कबीर के अधिकांश विचारों से तुलसीदास असहमत हैं,लेकिन स्त्री के बारे में दोनों की राय लगभग एक जैसी है।कबीर की तरह तुलसी भी स्त्री को अवगुण की खान और बुराइयों की जड़ समझते हैं।” 14 डॉ पांडेय कबीर और जायसी को सती प्रथा का समर्थक सिद्ध करते हुए लिखते हैं—“कबीर और जायसी सती प्रथा को महिमामण्डित करते हैं।” 15 इसलिए डॉ मैनेजर पांडेय निष्कर्ष निकलते हैं कि “कबीर,जायसी और तुलसी के काव्य में स्त्री सामंती रूढ़ियों में जकड़ी हुई है।”16 इस के विपरीत डॉ पांडेय के अनुसार,”सूरदास के काव्य में स्त्री का सहज,स्वतन्त्र और तेजस्वी रूप मिलता है,जो प्रेम के अलावा लोक और वेद के किसी बन्धन को नहीं मानतीं।”सूरसागर”में केवल एक जगह सती प्रथा का उल्लेख है।वहाँ भी उस प्रथा की भर्त्सना ही है और उस के जघन्य रूप के त्रासद प्रभाव की ओर संकेत भी।” 17 इसी प्रकार डॉ पांडेय की दृष्टि में मीरा का जीवन और काव्य उस काल के समस्त कवियों की स्त्री सम्बन्धी मान्यताओं का प्रतिकार भी है और प्रत्युत्तर भी।उन के अनुसार ,”स्त्री के बारे में मीरा का दृष्टिकोण बाकी भक्त कवियों से एकदम अलग है।उन की कविता में एक ओर सामंती समाज में स्त्री की पराधीनता और यातना की अभिव्यक्ति है तो दूसरी ओर उस व्यवस्था के बंधनों का पूरी तरह निषेध और उस से स्वतंत्रता के लिए दीवानगी की हद तक संघर्ष भी है।वह राठौड़ राजकुल की बेटी और सिसोदिया कुल की बहू थी,जहाँ सती प्रथा का चलन था।लेकिन विधवा होने के बाद मीरा कुल की रीति और लोक की रूढ़ि के अनुसार सती नहीं हुई।वह लगातार लाँछन, अपमान और यातना सहती हुई स्वतन्त्र रह कर कृष्ण भक्त बनी।उन्होंने निर्भय हो कर भ्रामक युग -धर्म और लोक -भय का सामना करते हुए स्पष्ट लिखा :”भजन करस्यां सती न होस्यां, मन मोहे घण नामी।” 18 इस तरह कबीर के नाम पर प्रचलित प्रक्षिप्त रचनाओं के आधार पर कबीर को स्त्री विरोधी सिद्ध किया गया है,वरना कौन नहीं जानता कि कबीर स्वर्ग और नरक की अवधारणा पर विश्वास नहीं करते…?कबीर और मीरा में बड़ी समानता है।कबीर गृहस्थ होने के चलते सामंती समाज की तमाम तरह की चुनौतियाँ झेल रहे हैं तो मीरा को घर से बेघर कर भटकने के लिए छोड़ दिया गया है।
डॉ सूरज पालीवाल ने भी कबीर के स्त्री चिंतन के सम्बंध में डॉ मैनेजर पांडेय से मिलते जुलते निष्कर्ष निकलते हुए लिखा है—-“यह तय है कि नारी को भोग की वस्तु बना देने वाला समाज उसे बन्धनों में जकड़ने के लिए अनेक प्रकार के मायाजाल का प्रयोग करता रहा होगा।घर – परिवार से लेकर मठों तक में नारी स्वतन्त्र नहीं थी,लेकिन विचित्र बात यह है कि सामंती शासन ,वर्ण व्यवस्था, नया धार्मिक कठमुल्लावाद का विरोध करने वाले कबीर आदि कवियों ने भी ,जो कि प्रकारांतर से समाज सुधारक भी कहलाए, नारी की निंदा ही की है।उसे माया,ठगिनी,सर्पिणी,और न जाने कितने कुत्सित रूपों में देखने का कार्य सगुण भक्त कवियों की तरह कबीर आदि सन्तों ने भी किया।सगुण कवियों को हम कुछ देर के लिए इसलिए भी छोड़ सकते हैं क्यों कि वे जिस समाज की स्थापना कर राम और कृष्ण के अवतारों की लीलाओं की विशद प्रशंसा करने में लगे हुए थे,वह समाज मध्य युग के समाज से बहुत अलग नहीं था।।तुलसी के राम राजा हैं,तो कृष्ण नौ लाख गायों के स्वामी।दोनों ही सामन्त हैं,एक परम्परागत सामंती शासन के राजा हैं तो दूसरे गोप संस्कृति के पालक।दोनों ही अपनी परम्परा और परिवार की नैतिकता के प्रति सजग हैं।लेकिन कबीर तो सारी रूढ़ियों का विरोध करते हैं,नारी विरोधी रूढ़ियों का विरोध क्यों नहीं कर पाते ..?असल में मध्य युगीन जड़ता में जकड़ी,उपेक्षित,लांक्षित और अमानवीय जीवन जीती नारी की मुक्ति की चिंता इन्हें थी ही नहीं।इसलिए उसे माया,ठगिनी एवं सर्पिणी आदि नाम दे कर और अधिक लांक्षित किया गया। ” 19 आगे निष्कर्ष निकलते हुए सूरज पालीवाल लिखते हैं—“अतः यह कहना सही नहीं है कि भक्त कवियों के यहाँ नारी की स्थिति मध्य युग की नारी से अच्छी है।निर्गुणिए सन्तों,सूफियों से लेकर सगुण भक्त कवियों तक ने नारी निंदा में कोई कमी नहीं छोड़ी है।मध्य युगीन नारी विरोधी समाज में ही मीराबाई अकेली ऐसी हैं,जिन्होंने सामंती रूढ़ियों और पारिवारिक मान्यताओं को तिलांजलि दे कर स्वतंत्रता का वरण किया।यह अद्भुत साहस था।मारवाड़ जैसी विशाल रियासत में मेड़ता के जागीरदार की पुत्री और मेवाड़ के राज परिवार में ब्याही जाने वाली मीरा ने न मारवाड़ की झूठी प्रतिष्ठा की चिंता की और मेवाड़ की छद्म नैतिकता की।वह नारी थी,परिवार की नैतिकता को अच्छी तरह समझती थी।वह जानती थी कि कम उम्र में विधवा हुई नारी की इन राज परिवारों में दासी से भी बुरी स्थिति होती है।शादी के सात -आठ वर्ष बाद है अपने पति राजकुमार भोजराज के शव के साथ न तो वह सती हुई और न विधवाओं की तरह अन्त्यज बन कर रहने को तैयार।दोनों ही स्थियाँ उसे नारी विरोधी लगती थीं।” 20  कबीर के स्त्री चिंतन पर सूरज पालीवाल के ये निष्कर्ष अत्यंत सरलीकरण के नमूने हैं।हिंदी आलोचना ऐसे ही नमूनों से भरी हुई है।चाहे भक्ति आंदोलन हो,छायावादी काव्यान्दोलन ,नई कविता आंदोलन अथवा अस्मितावादी आंदोलन हों ,हिंदी की द्विज आलोचना के निष्कर्ष तरह तरह के नमूनों को अब तक गढ़ती आई है।कबीर स्त्री मात्र के विरोधी नहीं हैं।कबीर बुरी स्त्री के विरोधी हैं ,और सिर्फ़ बुरी स्त्री के ही नहीं ,बुरे पुरुष के भी विरोधी हैं,क्यों कि कबीर जारकर्म की संस्कृति की मार से विवाह संस्था को बचाया जा सके,जिस से घर,परिवार और समाज की रक्षा की जा सके।कबीर बुरी स्त्री के विरोधी ही नहीं,अच्छी स्त्री के प्रशंसक भी हैं।वस्तुतः कबीर स्त्री के प्रति मौजूदा सामंती और धार्मिक नज़रिए के ख़िलाफ़ थे।
डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल ने अपनी पुस्तक “अकथ कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और उन का समय” के दो अध्यायों  (आठ और नौ) के शीर्षक क्रमशः “बालम आव हमारे गेह रे …कबीर का नारी रूप” तथा काम मिलावे राम कूँ…. शाश्वत स्त्रीत्व और कबीर की प्रेम धारणा” के अंतर्गत कबीर की स्त्री दृष्टि को भौतिक स्तर पर “संस्कारगत ” और आध्यात्मिक स्तर पर “शाश्वत” के रूप में दो फाँक कर देते हैं।” 21 कबीर  और उन के ईश्वर की अविचल  निष्ठा सदाचार में है।कबीर का सम्पूर्ण स्त्री दर्शन इस अगली  पंक्ति में निहित है—–“नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ।” कबीर न तो व्यभिचार के पक्ष में हैं,चाहे वह स्त्री हो या पुरुष ,और न ही योगियों की तरह काम जला कर हिजड़ा बन जाने के समर्थक।कबीर योगी को वापस घर लाने की बात करते हैं।कबीर गृहस्थ और लौकिक हैं,योगी और कामी नहीं।अतः उन के स्त्री चिंतन और योगियों,संन्यासियों और वैष्णव वैरागियों का स्त्री विरोधी चिंतन और कामियों के व्यभिचारी चिंतन से कबीर का बुनियादी विरोध है।
कबीर के स्त्री चिंतन पर हिंदी आलोचना की बौद्धिक रुग्णता का एक और नमूना डॉ गोपेश्वर सिंह के यहाँ मिलता है।डॉ सिंह ने कबीर के स्त्री चिंतन पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि” कबीर के विचार स्त्रियों के सम्बंध में अत्यंत कड़वे हैं।वे सम्वेदना के स्तर पर नारी विरह के अनूठे गीत रचते हैं,किंतु चेतना के स्तर पर किसी भी रूप में नारी को स्वीकार नहीं करते।नारी उन के लिए माया,नरक की खान आदि न जाने क्या क्या है।दादू तो अस्सी साल की बूढ़ी औरत तक को नहीं बख्शते।सगुण पन्थियों की तुलना में निर्गुणपंथी अधिक नारी निंदक हैं।।निर्गुणपंथियों में भी सामाजिक रूप से सर्वाधिक जाग्रत कबीर और दादू की नारी निंदा इतनी अभद्र,अमर्यादित और असुंदर है कि कोई भी आँख बंद कर ले।यह कबीर आदि का सर्वाधिक असुंदर पक्ष है।” 22 गोपेश्वर सिंह इस तथ्य से शायद ही अपरिचित हों कि कबीर बुरी यानी व्यभिचारिणी स्त्री के प्रति सब से कठोर क्यों हैं और अच्छी स्त्री के सब से बड़े प्रशंसक।कबीर अकारण नारी निंदा नहीं करते और न ही नारी मात्र के प्रति ऐसी युक्ति का प्रयोग करते हैं कि “शुद्र ,गँवार,ढोल ,पशु,नारी,सकल ताड़ना के अधिकारी।” कबीर स्त्री मात्र के विरोधी नहीं थे।वह तो जारकर्म की संस्कृति के विरोधी थे,जो घरों से लेकर मठों तक तक में फैली हुई थी।देवदासी प्रथा इन्हीं मठों की देन थी।कबीर घरों से लेकर मठों तक कि सफ़ाई करने के पक्षधर हैं।
सुप्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका  कुमकुम संगारी ने अपनी पुस्तक “मीराबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीति”में मध्यकाल के सन्तों – भक्तों की स्त्री-दृष्टि पर बहुत गम्भीरतापूर्वक और जिम्मेदारी के साथ अध्ययन किया है।लेकिन उन के  इस अध्ययन का उद्देश्य मध्यकाल में सर्वव्यापी पितृसत्ता के ख़िलाफ़ मीरा के संघर्ष के बहाने वर्तमान स्त्रीवादी आंदोलन के संदर्भ में  स्त्री संघर्ष के इतिहास की पुनर्रचना करनी है।इस उद्देश्य की पूर्ति में कुमकुम संगारी का विवेचन कई तरह से  सरलीकरण का भी शिकार हो जाता है। कबीर आदि पुरुष भक्तों के यहाँ  उन्हें पितृसत्ता की संरचना इसलिए दिख जाती है क्यों कि उन्हें  मध्यकाल में पितृसत्ता की व्यापकता जो देखनी और दिखानी है।इस के लिए वह कबीर की रचनाओं में हुए प्रक्षिप्तों को स्वीकार करती हुई भी उन्हें अलगाने के पक्ष में नहीं हैं क्यों कि उन्हें मध्यकाल में पितृसत्ता को सर्वव्यापक रूप में  दिखानी है।कुमकुम संगारी लिखती हैं—“मौखिक परम्परा से विरासत में मिले एक रचना संग्रह को किसी सन्त विशेष के रचनाकर्म से जोड़ने में आने वाली कठिनाइयाँ पितृसत्तात्मक मूल्यों के संदर्भ में देखने पर एक और पहलू सामने आता है।यह तो तथ्य ही है कि इन संग्रहों में प्रमाणिकता की खोज केवल संदिग्ध परिणाम देती है,क्यों कि समय के साथ रचनाओं में उस सन्त विशेष के कुछ अनुयायियों के अपने शब्दों का भी समावेश होता चला है(जो स्त्री -पुरुष में से कोई भी हो सकता है),जिन्होंने परम्परा में अपने हस्ताक्षर छोड़ दिये हैं।अब यही तथ्य पितृसत्ता की सर्वव्यापकता भी चिह्नित करता दिखाई देता है,रचनाओं को समाज द्वारा किस रूप में ग्रहण किया गया,इस का भी खुलासा करता दीखता है।” 23   कुमकुम संगारी आगे लिखती हैं कि “यहाँ यह पूछना अधिक प्रासंगिक होगा कि कबीर का रचनाकर्म किस पितृसत्ता का प्रतिनिधि बन कर सामने  आता है.? निश्चित ही व्यक्ति के सिर्फ़ निजी मत -अभिमत के स्तर पर तो नहीं।मौखिक परम्पराओं में यह तय करना मुश्किल है कि पितृसत्ता के कौन से आदर्श और विरोधाभास कवि के अपने हैं और कौन से प्रचलित अर्थों-व्याख्यायों में से और/ अथवा प्रचलित धर्म में भक्ति को शमिलकर लिए जाने के कारण आ गए हैं या फिर कौन से  साहित्य-सभाओं में उन रचनाओं की पुनरावृत्ति से।कबीर के रचना संग्रह का इस दृष्टि से  अन्वेषण इन परस्पर काटती रेखाओं को सुस्पष्ट करने में सहायक होगा। “24  उपर्युक्त  इन उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि कुमकुम संगारी इस बात से तो बखूबी परिचित हैं कि कबीर के काव्य में प्रक्षिप्तों की भरमार है लेकिन वह कबीर की मूल विचारधारा को आधार और मानक बना कर प्रक्षिप्तों को अलगाने के बजाय मध्यकाल में पितृसत्ता को  सर्वव्यापी दिखाना/बताना है ताकि मीरा के संघर्ष को गाढ़ा या घनीभूत रूप में दिखाया  जा सके।अपने इस उद्देश्य के लिए कबीर स्त्री चिंतन को शिकार बना लिया गया है।दरअसल कुमकुम संगारी का उद्देश्य आधुनिक स्त्रीवादी आंदोलन के इतिहास की  मध्यकालीन सशक्त  पृष्ठभूमि खोजनी /पानी है।लेकिन लेखिका को इस में बहुत सफलता नहीं मिलती है,इसलिए कबीर के बरक्स मीरा को क्रांतिकारी दिखाती हुई भी  अंततः मीरा के बारे में यह निष्कर्ष निकलना पड़ता है कि  “मीरा की भक्ति विरोधाभासी है,वह स्वयं को कमतर करने के प्रयासों का विरोध भी करती है,सहयोग भी,इस में क्रांतिकारिता और समझौते दोनों के तत्व हैं।” 25 कुमकुम संगारी को  विवाह संस्था को विवाह संस्था का मूल मान  कर उस के  खात्मे में ही स्त्री स्वतन्त्रता की प्राप्ति का आकांक्षी आधुनिक रेडिकल स्त्रीवादी आंदोलन  की सम्पूर्ण परिणति मीरा के साहित्य होते हुए न दिखने पर  केवल यह कह कर सन्तोष कर लेना पड़ता है कि  “हमारे लिए मीरा इस “संघर्ष “की प्रतिनिधि हैं,विजय की नहीं।”26 कुमकुम संगारी की उपर्युक्त पुस्तक की “मीरा का स्त्रीवाद रिसेप्शन :महादेवी से कुमकुम संगारी तक” शीर्षक से  भूमिका लिखने वाली स्त्रीवादी लेखिका अनामिका को भी लिखना पड़ता है कि “पितृसत्तात्मकता और राजसत्ता के समस्त निषेध के बावजूद मीरा बोलती हैं दास्य भक्ति की भाषा ही।” 27 दरअसल मीरा गृहस्थ बनना चाहती हैं,कुमकुम संगारी और अनामिका के आधुनिक स्त्रीवाद की तरह विवाह संस्था से मुक्ति नहीं, मध्यकाल के उच्चजातीय समाज ने मीरा को गृहस्थ बनने की छूट नहीं दी।
डा धर्मवीर कबीर को स्त्री- विरोधी नहीं मानते। उन के अनुसार कबीर आजीवक दार्शनिक हैं।भारत में दो परम्पराएँ हैं ,एक वैदिक और दूसरी आजीवक।वैदिक परंपरा जार समर्थक परम्परा है।इस के उलट आजीवक परम्परा जार विरोधी परम्परा है।गृहस्थ व्यक्ति योगी और संन्यासी के विपरीत घर-परिवार के प्रति खासा जिम्मेदार   होता है।कबीर ऐसे ही गृहस्थ साधक थे। उन्होंने सुझाव दिया कि कबीर के स्त्री चिंतन को उस के वास्तविक रूप में जानने/समझने के ज़रूरी है कि कबीर की औरस रचनाओं से प्रक्षिप्त रचनाओं को अलग किया जाय।दूसरे,कबीर के स्त्री चिंतन और योगियों,संन्यासियों और वैष्णव वैरागियों के स्त्री विरोधी चिंतन में बुनियादी अंतर है।कबीर गृहस्थ और लौकिक हैं,वह स्त्री के बारे में योगी,संन्यासी,वैरागी और कामी लोगों की तरह नहीं सोच सकते। डा धर्मवीर ने कबीर के स्त्री – चिंतन को संन्यासियों के स्त्री विरोधी दर्शन से अलगाते हुए लिखते हैं—“….ऐसा मुमुक्षु संन्यासी या बौद्ध और जैन भिक्षु(जो घर से भागे हुए और सामाजिक मृत्यु का रास्ता वरण किए हुए हैं)नारी के सौंदर्य की प्रशंसा कैसे कर पाएगा ..? यदि वह संन्यास के रास्ता नहीं अपनाया है तो उसे परकीया की खोज करनी पड़ेगी।….लेकिन  भारत में नारी-सौंदर्य कबीर के आजीवकवाद में पूरी तरह सुरक्षित और सजता है,जिसमें न उस से मुँह फेर का संन्यास और भिक्षुपन है और न परकीया सम्बन्धों का डोम्बीवाद और राधावाद।यहाँ “सुंदर”की प्रतिष्ठा के लिए नैतिकता को भी कोसना नहीं पड़ता।सौंदर्य पत्नी का शील बन जाता है।उस में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलता नहीं बल्कि पति -पत्नी के बीच प्रेम की तीव्रता बढ़ती है।” 28 कबीर मोरलेतर भक्ति या धर्मेतर अध्यात्म के व्यक्ति नहीं हैं।कबीर और उन का ईश्वर स्त्री-पुरुष सम्बन्ध( अध्यात्म के स्तर पर आत्मा -परमात्मा सम्बन्ध ) के स्तर पर  सदाचार के पक्षधर हैं।कबीर का स्त्री -दर्शन   स्त्री -पुरुष की एकनिष्ठता का चिंतन है—-“नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ।” 29 कबीर का साहित्य “नो अडल्ट्री जोन”का साहित्य है ,लेकिन योगी या संन्यासी की तरह काम जला कर हिजड़ा बनने की प्रेरणा नहीं देता।कबीर भूलवश या भटक कर गृहस्थ से योगी बने योगियों को पुनः गृहस्थ बनाने का आह्वान करते हैं। कबीर के यहाँ माया महा ठगिनी है,जिस ने ब्रम्हा,विष्णु और महेश सभी को पहले से ठग रखा है,कबीर के यहाँ यह माया बुरी स्त्री है ,यह उसी जाति की है जिस जाति की वेश्या है—-
“कबीर माया बेसवा,दोनूं की इक जात।
आवत को आदर करैं, जात न बूझैँ बात।। ” 30 कबीर सती के समर्थक नहीं हैं।कबीर ने तो सती नहीं,बल्कि घर बसाने वाली स्त्री के पक्ष में लिखा है —–
“मोह भरम से सती होत है,पिया के फंद परी।” 31
“तेरह दिन तक तिरिया रोवै,फेर करै घर बासा।” 32
 कबीर ने मध्यकाल में जारकर्म की संस्कृति के प्रभाव से घर,परिवार और समाज को टूटने से बचाने का युद्ध लड़ा।कबीर स्त्री के विरोधी नहीं बल्कि बुरी स्त्री के साथ साथ बुरे पुरुष के विरोधी थे।उन्होंने गृहस्थ जीवन से ले कर अध्यात्म तक सदाचार की मांग उठाई। कबीर ने स्पष्ट कहा—–
“नार पराई अपन कै देखै, सो नर पार न पावै।”33
” काम स्वाद कियो व्यभिचारा, राम रहा उनहू ते न्यारा।”34
इस तरह डा धर्मवीर के अनुसार कबीर ने मध्यकाल में जार सँस्कृति के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर विवाह संस्था की रक्षा की ताकि घर,परिवार और समाज अटूट रहें।डा धर्मवीर ने कबीर को आजीवक दर्शन के प्रवर्त्तक मक्खलि गोसाल की परंपरा का गृहस्थ मानते हुए लिखा है—-“मक्खलि गोसाल स्त्री से अपने सम्बन्ध बनाने की वजह से महावीर से अलग हुए थे।उन्होंने स्त्री के बिना रहना नहीं चाहा।कबीर उसी परम्परा के गृहस्थ थे।”35
कबीर गृहस्थ साधक हैं,उन्होंने योगियों की तरह काम को नहीं जलाया।कामियों के समान घर से ले कर मठ तक व्यभिचार के कीचड़ को फैलाया नहीं। उन्होंने अध्यात्म को चादर को गन्दा नहीं किया।उस की पवित्रता बनाए रखी।तभी तो स्पष्ट रूप से कहा—–
“झीनी झीनी बीनी चदरिया।
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,ओढ़ के मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।।”36 कबीर की इस भौतिक और आध्यामिक चादर में जारकर्म की जगह प्रेम,भिक्षावृति के बजाय श्रम और पाखण्ड व कर्मकांड की जगह सहज , स्वाभाविक और सच्चे अध्यात्म का महत्व है।इस तरह कबीर ने समाज में एक नए तरह के सौंदर्य को रचा।कबीर ने धर्म और अध्यात्म के मार्ग में स्त्री को बाधक नहीं माना,स्त्री को मुक्ति के मार्ग में बाधक मान कर “नरक का द्वार” नहीं कहा।कबीर की धार्मिक – आध्यामिक साधना घर या स्त्री के परित्याग पर  निर्भर नहीं।कबीर ने धर्म और अध्यात्म के मार्ग में नारी बाधा मान कर उस की निंदा करने वालों को समझाते हुए कहा——-
“नारी निंदा ना करो,नारी रतन कि खान।
नारी से नर होत है,साधू, सन्त,सुजान।।” 37
गृहस्थ कबीर की तरह कबीर का ईश्वर भी सदाचार का पक्षधर है।कबीर का  ब्रह्म निर्गुण हैलेकिन यह सारे लौकिक गुणों से पूर्ण है।डा धर्मवीर के शब्दों में ,” कबीर के पास सगुण रूप में राम और कृष्ण से भी बड़ी चीज़ है।यह दूल्हे और दुल्हन के प्रेम की गहरी लौकिक तीव्रता है। “38 हिंदी आलोचना कबीर के स्त्री चिंतन को समझने में असमर्थ रही क्यों कि कबीर के जीवन और विचारधारा की तरह कबीर के स्त्री चिंतन को भी मिथकों और प्रक्षिप्तों  को ऐतिहासिक सत्य मान कर कबीर के स्त्री चिंतन पर निर्णय करती रही।कबीर के स्त्री चिंतन को कामियों, योगियों ,संन्यासियों और वैष्णव वैरागियों के नज़रिए से देखती रही। कबीर ने किन सब से अलग स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की नई संहिता का निर्माण किया,जो आचार्य वात्स्यायन के कामसूत्र से अलग है।कबीर की आचार संहिता वात्स्यायन के कामसूत्र का प्रतिकार है।
                     कबीर का स्त्री चिंतन  पीछे की  परंपरा में मक्खलि गोसाल से जुड़ती है तो आगे डा आंबेडकर और डा धर्मवीर  से।आजीवक दर्शन के प्रवर्तक मक्खलि गोसाल ने  महावीर का साथ ही स्त्री के मुद्दे पर छोड़ा और हालाहला नाम की स्त्री से विवाह कर गृहस्थ जीवन का वरण किया और जीवन के उत्तरार्ध में अपने दार्शनिक सम्प्रदाय का वारिश बनाया।कबीर मक्खलि गोसाल की परंपरा के गृहस्थ थे। डा अम्बेडकर ने स्त्री-पुरुष के सम्बंध को लोकतांत्रिक स्वरूप देने के लिए हिन्दू कोड बिल लाए, जिसे हिंदुओं ने खारिज़ कर दिया।जो हिन्दू समाज हिन्दू कोड बिल  समझने और स्वीकार करने में अपने को असमर्थ पाता है ,उस से कबीर के स्त्री चिंतन को समझने की आशा करना व्यर्थ है।डा धर्मवीर ने मध्यकाल में कबीर की तरह आधुनिक समय में जारकर्म की संस्कृति के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की क्यों कि इस के चलते घर,परिवार,समाज और राष्ट्र सब खतरे में पड़ जाते हैं। संक्षेप में,कबीर के स्त्री- चिंतन की यही परम्परा है,जिसे पौराणिक,वैदिक,वैष्णव और योगियों की परम्परा के सहारे समझना असम्भव है।
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सुभाष चन्द्र

शोध छात्र हिन्दी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज - 211002. संपर्क - 6392798774,9532188761 ईमेल - [email protected]