मैं गंगा हूं
भागीरथ के तप का हूं प्रतिफल, पतित पावन है मेरा जल ।
देवव्रत को दिया जन्म, जगत माता बनी तरणी हूं निर्मल ।
प्रचंड प्रवाह कर सके वहन, धरती में कहाँ इतना बल ।
शिव ने शिरोधार्य किया, प्राकट्य धरा में तब हुआ सरल ।
महादेव की जटा से धारा, प्रकट भई गोमुख के द्वारा ।
स्वर्गवासिनी आई धरती पर, कर उपकार धरा को तारा ।
हिमागिरी पर अठखेलियाँ करती, दिव्य नाद से हुई मुखर ।
मार्ग अपना स्वयं बनाया, चलती रही शाखा में बंटकर।
स्वच्छ सुंदर मेरी काया, बूंद – बूंद में अमृत समाया ।
जो मुझ तक है भाव से आया, मैंने उसका हर कष्ट मिटाया ।
हर तट पर जीवन पसरा है, हर शरणागत यहाँ उबरा है ।
आंचल में मेरे मुक्ति है, मुझमे वह परमशक्ति है ।
पर इतना सुख और वैभव, मानव को रास न आया ।
माता कहकर भी वह मेरा, दर्द समझ न पाया ।
हे धरती पुत्रों जरा सोचो, क्या तुमने मेरा हाल किया ।
मैं तो अमृत लुटाती आई, पर तुमने मुझमें जहर भर दिया ।
मुझे स्वच्छ करने चले, बच्चे मेरे कितने भोले ।
करोड़ो खर्च करने के बहाने, कह दो गंगा से कोई न खेले ।
मौन रहकर किया प्रहार, देखो अब प्रकृति का प्रतिकार ।
स्वयं से तुमको करके दूर, मैंने फिर किया अनुपम श्रंगार ।
देखो मेरा वास्तविक रूप, जिससे तुम अनभिज्ञ रहे ।
प्रकृति स्वयं का नियम चलाती, यह बात सदा तुम्हे ज्ञात रहे ।
अब पहले सी निर्मल हूं, दर्पण सा उजला मेरा जल
मैं जो थी वही रहूंगी, मैं हूँ स्वयंसिद्धा गंगाजल ।
— गायत्री बाजपेई शुक्ला