नौ किलोमीटर (लघु कथा)
‘और कितना दूर है बाबा!’ नन्हें ने कंधे पर बैठे-बैठे ही पूछा।
बस! और नौ किलोमीटर बेटा!! मंगलू ने हाँफते हुए जवाब दिया।
ऐसा लग रहा था मानो बड़ी कोशिश कर उसके मुख से यह शब्द निकल सके। उसके आगे बमुश्किल एक कदम बढ़ा सका था मंगलू और उसके कदमों ने जवाब दे दिया। छालों से रिसते रक्त सने पग घिसटने लगे। जैसे-तैसे तीन वर्ष के नन्हे को संभालते हुए सड़क किनारे उतारा और मील के पत्थर पर टेक लगाकर बैठ गया। भूख और थकान से निढाल हो मंगलू की आँखें शून्य आसमान को ताकते पथरा गई, कदमों के साथ-साथ श्वास ने भी साथ छोड़ दिया। प्राण शरीर त्याग अनंत यात्रा को ओर निकल पड़े।
कुछ समय पूर्व अभावों में ही सही किंतु उसका हँसता खेलता परिवार था मुंबई में। फिर शुरू हुई कोरोना त्रासदी और उससे सुरक्षा हेतु प्रतिक्रिया स्वरूप लाॅकडाऊन। जिसने उसकी नौकरी छीन ली। कठिन समय में अंतिम ठिकाना निज गृह ग्राम याद आया मंगलू को और उसने अन्य अनेकों के साथ हजारों किलोमीटर अपने कदमों से ही नाप लिया। अंतिम पड़ाव जहाँ मंगलू की निर्जीव देह पड़ी थी उसके गंतव्य से मात्र नौ किलोमीटर दूर था। नन्हें आसन्नप्राय संकट से अनजान मील के पत्थर पर बैठा पिता के बाल खींच कर कह रहा था – उठो बाबा! भूख लगी है!! घर चलो!!!
मंगलू की पथराई आँखें शून्य को ताक रही थीं। मील के पत्थर पर लिखा था – “नौगाँव 9 कि मी”
— अनंत पुरोहित ‘अनंत’