मुक्तक
सिर पर गठरी हाथ में बखरी और पाँव में छाले हैं।
गया कमाने था सुख रोटी जी पानी के भी लाले हैं।
पैदल चलना मर खप जाना यही भाग्य में है तेरे-
पीस दिया तूने सोलह व्यंजन अब न बचे निवाले हैं।।
रास्तों को छोड़कर जाता कहाँ है आदमी।
बस तनिक विश्राम कर फिर चल पड़ा है आदमी।
आदमी से आदमी ही पूछता है रास्ता-
मंजिलों की खोज में कब से खड़ा है आदमी।।
— महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी