ईश्वर व सृष्टि को जानना और ईश्वरोपासना सब मनुष्यों का कर्तव्य
ओ३म्
सभी मनुष्यों के पास परमात्मा का दिया हुआ शरीर एवं बुद्धि होती है। बुद्धि से मनुष्य संसार सहित ईश्वर, आत्मा एवं अपने कर्तव्यों को जान सकता है। संसार के लोगों को देखने पर यह अनुभव होता है कि लोग ईश्वर व सृष्टि को तो क्या स्वयं को भी भली प्रकार से जानते नहीं है। वह पशुओं की भांति संसार में उत्पन्न होकर सुख- सुविधाओं की प्राप्ति में लगे रहते हैं, धन व सम्पत्ति को इकट्ठा करना उनका मुख्य उद्देश्य होता है, और ऐसा करते हुए ही वह अपनी पूरी आयु को गवां देते हैं तथा अल्पावधि में ही रोगी होकर मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। मनुष्य को वेदों का ज्ञान व बुद्धि परमात्मा से मिली है। इनका सदुपयोग कर वह संसार को यथार्थ रूप में समझ सकता है और अपने कर्तव्यों का निर्धारण कर उनका पालन करके दुःखों की निवृत्ति एवं सुखों को प्राप्त हो सकता है। ऐसा करते हुए वह अपना परजन्म व अगला जन्म भी सुधार सकता है व उसे भी सुखों से पूरित करने के लिये सत्य कर्मों वा पुण्य कर्मों की पूंजी एकत्र कर सकता है। मनुष्य इस संसार में अपनी आत्मा में पूर्वजन्मों के संस्कारों की पूंजी लेकर आता है और मृत्यु के समय यहां से इस जन्म में किये हुए शुभ व अशुभ कर्मों की पूंजी साथ लेकर जाता है। उसके इस जन्म के संचित कर्म ही उसके भावी जन्म, योनि व सुख-दुःखों के निर्धारण में सहयोगी होते हैं। अधिक पाप करने वाले मनुष्यों का तो मनुष्य योनि में जन्म ही नहीं होता। ऐसे मनुष्यों को पशु, पक्षी आदि अनेक नीच योनियों में पापों का दुःख रूपी दण्ड भोगने के लिये जाना पड़ता है। जो मनुष्य अपने जीवन में पाप कम तथा पुण्य कर्म अधिक करते हैं, वह अपने पुण्य कर्मों के परिणाम से आगामी जन्म में मनुष्य योनि को प्राप्त कर देवत्व के गुणों से युक्त श्रेष्ठ, सुन्दर, बलवान शरीरों व परिवेश को प्राप्त होते हैं। अतः सभी मनुष्यों का कर्तव्य हैं कि वह अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के सिद्धान्तों की परीक्षा कर उनके सत्य व वेदानुकूल सिद्धान्तों को ही मानें, सत्य का अन्वेषण करें, वेद पढ़े, वेदों के बुद्धि व तर्क संगत सत्य सिद्धान्तों की परीक्षा करें और उसी को अपनायें जिससे उनका इस जन्म का सांसारिक जीवन तथा भावी जन्म भी सुख प्रदान कराने वाला हो, मोक्ष की ओर ले जाने वाला व उसे प्राप्त कराने वाला हो।
मनुष्य का आत्मा चेतन पदार्थ है। यह सत्य, अति सूक्ष्म, एकदेशी, अणु परिमाण, रंग-रूप-आकार-भार से रहित, जन्म-मरण धर्मा, पूर्वजन्म के संचित कर्मों के आधार पर मनुष्य व पशु-पक्षी आदि योनियों में जन्म पाने वाला एक अनादि, नित्य, अजर, अमर, अविनाशी, ससीम, ज्ञान प्राप्ति में समर्थ, ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर, आत्मा व सृष्टि का सत्य व यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने वाला, वेदानुकूल आचरण करने में समर्थ तथा वेदार्थ को जान कर तद्वत् आचरण कर जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त होने वाली सत्ता है। परमात्मा एक सत्य एवं चेतन सत्ता है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र व सृष्टिकर्ता है। परमात्मा से ही जीवों के लिये सृष्टि की रचना व पालन होता है तथा जीवों को उनके कर्मानुसार जन्म व सुख-दुःख मिलते हैं। हमारे सुख व दुःखों का कारण भी हमारा ज्ञान व कर्म ही होते हैं। यदि हमारा ज्ञान व कर्म शुद्ध हैं तो हम दुःखों से बच सकते हैं। दुःखों की निवृत्ति भी ज्ञान को बढ़ा कर वेदानुकूल शुद्ध व पवित्र कर्मों को करने से ही होती है। मनुष्य को वेदाध्ययन कर ईश्वर व आत्मा आदि सभी पदार्थों का सत्य व निर्दोष ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और ज्ञानानुरूप कर्म करके दुःखों को हटाकर सुखों को प्राप्त कर मुक्ति पथ पर चलते हुए उसे प्राप्त करना चाहिये। हमारे ऋषि मुनियों व विद्वानों सहित ऋषि दयानन्द का जीवन चरित पढ़कर हम मोक्ष मार्ग के पथिक बन कर लक्ष्य के समीप पहुंच सकते हैं। ऋषि दयानन्द तथा आर्यसमाज के अनुयायी एवं वेदमार्ग पर चलने वाले वैदिक धर्मी इसी मार्ग का अनुसरण करते हैं। उनका जीवन भी हमारे लिये अनुकरणीय होता है। उसे अपनाकर भी हम कल्याण को प्राप्त हो सकते हैं।
ईश्वर को जानने से मनुष्य का आत्मा सन्तुष्ट व प्रसन्न होता है। सत्य ज्ञान जो भी होता है उससे सन्तुष्टि व प्रसन्नता प्राप्त होती है। ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि वह सन्तान भाग्यवान होती है जिसके माता पिता धार्मिक विद्वान होते हैं। ऐसे माता-पिताओं से सन्तान का जो हित सिद्ध होता है वह अन्य माताओं आदि से नहीं होता। इसके साथ यदि बाल्यकाल से वैदिक शिक्षा व आचार्यों से वेद आदि ग्रन्थों सहित आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा भी प्राप्त हो तो मनुष्य का वर्तमान शिक्षा की दृष्टि से कहीं अधिक कल्याण होता है। आज भी लोग आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन करने के साथ वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करते हैं व अपने जीवन को आध्यात्म तथा सांसारिक ज्ञान से सम्पन्न करते हैं। ऐसा जीवन ही देश व समाज के लिये उपयोगी होता है। ऐसा जीवन अपने व अपने परिवार सहित अपने इष्ट-मित्र आदि सभी के लिये लाभकारी होता है। इस लाभ को प्राप्त कराने के लिये ही वेदों के महान ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने अपनी समाधि का सुख छोड़कर देश, वैदिक धर्म एवं संस्कृति की उन्नति के लिये देश-देशान्तर में वेदप्रचार का कार्य किया था। वेद प्रचार के अन्तर्गत ही उन्होंने हमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, अनेक लघुग्रन्थों सहित वेदभाष्य भी प्रदान किया है। इस साहित्य को पढ़कर मनुष्य का सर्वविधि कल्याण एवं सर्वांगीण उन्नति होती है। वेद पथ पर चलने से मनुष्य सांसारिक सुख व सम्पत्ति की प्राप्ति सहित ईश्वर के साक्षात्कार करने में भी समर्थ होता है। वह दुःख, दारिद्रय व दुर्गुणों से सर्वथा मुक्त होकर सद्गुणों से पूरित होकर दैवीय गुणों व शक्तियों से युक्त होता है। रोगों से रहित जीवन व्यतीत करते हुए आरोग्यवान, शक्ति व बल से युक्त तथा दीर्घायुष्य को प्राप्त होता है। इसके साथ ही मृत्यु के बाद भी उसकी उध्र्व व उन्नत गति होती है। यही मनुष्यों के लिये प्राप्तव्य होता है। जिसने इसे प्राप्त किया उसका जीवन सफल होता है अन्यथा आत्मा जन्म जन्मान्तरों में दुःख भोगता है।
ऋषि दयानन्द ने मनुष्यों को योग के आठ अंगों को अपनाने की भी प्रेरणा की है। योग से मनुष्य स्वस्थ एवं निरोग रहता है तथा मन में एकाग्रता आती है। एकाग्र मन से ही ईश्वर का ध्यान करने से ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त होकर उसका साक्षात्कार होता है। ऋषि दयानन्द ने मनुष्यों को ईश्वर का साक्षात्कार कराने के लिए आवश्यक ईश्वर की उपासना की विधि की पुस्तक ‘‘सन्ध्या विधि” भी लिखी है। इस पुस्तक का आधार वेदों का शुद्ध ज्ञान है। इसका संकल्पपूर्वक यथासमय सेवन व आचरण करने से अनेक लाभ होते हैं। उपासना के विषय में हम सत्यार्थप्रकाश से ऋषि दयानन्द के प्रासंगिक वचनों व उनके भावों को प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि मनुष्य जब उपासना करना चाहें तब एकान्त शुद्ध स्थान को प्रापत होकर आसन लगा, प्राणायाम कर बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक, मन को नाभिप्रदेश में वा हृदय, कण्ठ, नेत्र, शिखा अथवा पीठ के मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न हो कर संयमी होवें। जब इन साधनों को करते हैं तब साधक व उपासक के आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाते हैं। साधक नित्यप्रति अपना ज्ञान विज्ञान बढ़ाकर मुक्ति तक पहुंच जाता है। जो आठ पहर में एक घड़ी भर भी इस प्रकार ध्यान करता है वह सदा उन्नति को प्राप्त हो जाता है। सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना सगुण और द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणों से पृथक् मान, अतिसूक्ष्म आत्मा के भीतर बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ स्थित हो जाना निर्गुणोंपासना कहलाती है। इस उपासना का फल, जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे उपासना करते हुए परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष व दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये। इस प्रकार उपासना करने से इस उपासना का फल पृथक् होगा। इससे आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, कि पर्वत के समान (मृत्यु व मृत्यु के समान अन्य) दुःख प्राप्त होने पर भी उपासक मनुष्य न घबरायेगा और सब को सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रक्खे हैं, उस का गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना, कृतघ्नता और मूर्खता है।
ईश्वर का ज्ञान वेद एवं वैदिक साहित्य सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों से होता है। इस समस्त साहित्य का अध्ययन कर प्राप्त ज्ञान को अपनी आत्मा में निहित व उपस्थित कर ईश्वरोपासना करने से मनुष्य जीवन सफल व आनन्दित किया जा सकता है। स्वाध्याय एवं ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि के लिये सत्यार्थप्रकाश संसार का अद्वितीय एवं महानतम ग्रन्थ है। सभी को इसको अवश्य पढ़ना चाहिये। इसके अध्ययन में विलम्ब नहीं करना चाहिये। यदि अध्ययन करेंगे तो लाभान्वित होंगे और नहीं करेंगे तो मिथ्या व अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों में फंसे रहेंगे जिससे जीवन सार्थक, उपयोगी व उद्देश्यपूर्ण व्यतीत नहीं हो सकेगा। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य