कविता

सारा आकाश 

कहाँ से करें  शुरू, कहाँ पर करें  खत्म
कैसे मैं यह  जानू, करूँ क्या मैं  जतन।
सूरज  को  थामे, चंदा  को पाले
कितने ही तारों को अपने पट में डाले।
मानव ने बनाए जो उड़ायमान यंत्र
रखते हो उनके लिए भी अपना मन।
देते हो मार्ग अपने सीने को भेद कर
इनके भी वास्ते गुजरने के रास्ते ।
रात के अंधेरे में खोया यह मेरा मन
बुनता है जाने कितने सपने यह मन।
लगता है कि यह सपने आते हैं चुपके से
तेरे ही व्योम के किसी कोने से छुपके
जाने तू ही सारे तेरे भेद यह गहरे
हर पल है हम पर तो तेरे ही पहरे।

डॉ. शीला चतुर्वेदी 'शील'

प्रधानाध्यापक आदर्श प्राथमिक विद्यालय, बैरौना, देवरिया एक शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए मैं सामाजिक व कई शैक्षिक संगठनों से भी जुड़ी हुई हूं एवं इसके साथ ही एक कुशल गृहणी भी हूं। वर्तमान में (SRG) राज्य संसाधन समूह के पद पर कार्यरत हूँ । शैक्षिक योग्यता- M.Sc., M.Phil(Physics), B.Ed, Ph.D. साहित्य में भी रुचि रखती हूँ।