आओ धरा का करें श्रृंगार
नीली नीली धरती अपनी
आँचल में हैं रत्न अपार!
तरह-तरह के वृक्ष लगाकर
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
स्वच्छ, स्वस्थ ,निर्मल धरा
जीवन यहाँ बिखरा पड़ा ।
हम पर इसके हैं उपकार
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
फल फूलों से लदी हुई
क्षुधा है जिससे तृप्त हुई ।
माँ के जैसी पालनहार
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
प्राणवायु तरू हैं देते
बदले मेें ये कुछ न लेते ।
ऐसे मित्र से कर लें प्यार
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
स्वार्थ और लालच से भरा
मानव कर रहा नष्ट धरा ।
माँ के दुख का करें संहार
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
मानवता का धर्म निभाएं
अपने हिस्से का वृक्ष लगाएं ।
सांसे न बन जाए उधार
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
घर-घर में हो हरियाली
जिससे सजे भोजन की थाली
हरित क्रांति को दें आकार
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
पंछी अब न नीड़ को भटके
बरगद, पीपल, नीम पर चहकें ।
चहुंओर हो यही गुंजार
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
धरती की शोभा फूलों से
फुलवारी अब घर-घर महके ।
वृक्ष बने अपना परिवार
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
वृक्षों की छाँव से तृप्त धरा हो
जड़ों में जिसकी नीर भरा हो
होगा यह सपना साकार
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
वृक्ष काटकर बैर न पालो
अपनी गलती आप सम्भालो
कर लो स्वयं का तुम उद्धार
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
गरल पी लिया जैसे शिव ने
जग को जीवनदान दिया ।
वृक्ष भी हैं शिव का अवतार
आओ धरा का करें श्रृंगार ।
— गायत्री बाजपेई शुक्ला