क्या ज्योतिपुँज आएगा?
बिखरे अरमान ,भीगे नयन,
और यह चीरती तन्हाई ।
आँखों की तिजोरी से मोती
बिखेरती कैसी बदहाली छाई।।
घुँघरू सी बजती स्वप्नों की
टूटती झंकारें साज खोती रही।
पलकें बंद हो या खुली
बेचैनियाँ दामन ना छोड़ती कभी।।
जख्म गहरे ,दर्द भी रोये ,
तड़पाती पल-पल सदमें।
बिखरी सांसे, आँसू की बौछारें,
सहमाती मनहूस रातें ।।
वो कफ़स की सीमाएँ
क्षितिज से परे थी।
पंछियों सी
हसरत-ए-परवाज में कैदी थी ।।
इंतकाल -ए -परवाज
कहूँ या क्या बयाँ ।
दर्द-ए-दिल आँसू
भी हो गए मुझसे ख़फ़ा।।
आब -ए- चश्म में कभी पिता
की झलक देखी थी ।
पता नहीं था ,वह वासना का
कफन ओढ़ कर बैठी थी।।
थर -थर कांपी होगी धरती
लूटी थी एक मासूम की आबरू।
सौतेली पर बेटी थी तुम्हारी
कैसे दर्पण से होते तुम रूबरू।।
हूक मन में उठ रही तो
करूँ घुट-घुट चीत्कार।
मेरी माँ ने हामी भर दी ,
बस करूँ मैं हाहाकार।।
मेरी हँसती -खेलती जिंदगी
सारी बिखेर डाली।
अपने कुकृत्य से दरिंदगी
की हदें भी तोड़ डाली।।
आस्तीन में खंजर रखकर
पिता बन कर यह सिला दिया।
क्या दोष दूँ तुम्हें जब
माँ ने सब जानकर ताला लगा लिया ।।
तुम्हारी दौलत के आगे
माँ की ममता भी बिक गई ।
बड़ा आशियां, स्टेटस के आगे
बेटी की अस्मत पीछे रह गई।।
आज अपने ही घर में,
मैं चीखती हूँ चिल्लाती हूँ।
अपने ही सौतेले बाप से
बोटी बोटी नोचवाती हूँ।।
क्या ज्योति पुँज आएगा?
क्या कोई सुनेगा मेरी पुकार?
कैसे थमेगा यह व्यभिचार?
पधारो हे नटवर नागर।।
— अंशु प्रिया अग्रवाल