हम मनुष्य कहलाते हैं परन्तु क्या मनुष्य बनने का प्रयत्न करते हैं?
ओ३म्
मनुष्य स्वयं को मनुष्य कहता है परन्तु मनुष्य किसे कहते हैं, इस पर वह कभी विचार नहीं करता। हमारे वैदिक विद्वान बताते हैं कि मनुष्य को मनुष्य विचारशील तथा सत्य व असत्य का मनन करने के कारण से कहते हैं। मनुष्य के पास बुद्धि होती है जिससे वह उचित–अनुचित, सत्य–असत्य, कर्तव्य–अकर्तव्य, धर्म–अधर्म, न्याय–अन्याय, पक्षपात के दोष और निष्पक्ष व्यवहार के लाभों पर विचार करता व कर सकता है। देश व समाज के लोगों पर दृष्टि डालें तो सभी व्यक्ति व मनुष्य मनुष्य की इस प्रकृति, स्वभाव व परिभाषा के अनुसार अपने कर्तव्य की पूर्ति करते हुए दृष्टिगोचर नहीं होते। मनुष्य को विचार कर सत्य व असत्य का निर्धारण करना चाहिये। उसे सत्य का ग्रहण तथा असत्य का त्याग करना चाहिये। इस सिद्धान्त व मान्यता को सभी स्वीकार करते हैं। ऋषि दयानन्द ने भी सत्य का ग्रहण करने तथा असत्य का त्याग करने की प्रेरणा करने सहित यह सिद्धान्त दिया है। इसी से मनुष्य जाति की उन्नति होकर सबको सुख व कल्याण की प्राप्ति होती है। ऐसा होने पर भी लोग केवल धनोपार्जन के लिये ज्ञान प्राप्त करते हैं। नौकरी या व्यवसाय कर उससे धन कमाते और सुख-सुविधाओं से युक्त जीवन निर्वाह करने के अतिरिक्त मनुष्य होने के किसी अन्य कर्तव्य की पूर्ति उनके जीवन से होती हुई दिखाई नहीं देती है।
मनुष्य का जीवन केवल स्वात्मकेन्द्रित नहीं होता। उसके जीवन में माता–पिता, परिवारजनों सहित समाज तथा देश के अनेक लोगों की भूमिका भी होती है। ईश्वर ने उसे माता–पिता के द्वारा जन्म दिया होता है। ईश्वर ही सभी मनुष्यों व प्राणियों के शरीर को बनाते व उसका संरक्षण करने के साथ उसे स्वस्थ व निरोग रखते हैं। परमात्मा से ही हमें अपनी सभी ज्ञानेन्द्रियां व कर्मेन्दियां प्राप्त हुई हैं। अतः हम परमात्मा, माता–पिता–आचार्यों, देश व समाज के सभी लोगों एवं पृथिवी सहित अग्नि, वायु, जल व आकाश आदि जड़ पदार्थों के भी ऋणी हैं। प्राकृतिक पदार्थों पर सभी मनुष्यों व प्राणियों का समान अधिकार होता है। हम अपने जीवन में इस तथ्य की भी उपेक्षा करते हुए दिखाई देते हैं। जिस प्रकार परमात्मा व समाज के अनेक लोगों से हमारी उन्नति होकर हमें सुख प्राप्त होता है, उसी प्रकार हमें भी दूसरों को सुख देने व उनकी उन्नति पर ध्यान देना चाहिये। हमें लगता है कि शायद ही कोई मनुष्य या व्यक्ति अपने इस कर्तव्य पर विचार करता हो और इसे पूरा करता हो। इसी कारण से वेद और वैदिक साहित्य में दान को महत्व दिया गया है। दान केवल धन व सम्पत्ति का नहीं होता अपितु ज्ञान व विद्या के दान को सबसे बड़ा दान माना जाता है। विद्या के दान सहित समय, श्रम व धन के दान का भी अपना महत्व होता है। इस प्रकार के दान की भी हमारे आधुनिक समाज में उपेक्षा की जा रही है। इसी कारण से हमारे देश का बहुत बड़ा व अधिकांश भाग सत्य ज्ञान के प्रकाश व प्रचार से वंचित है। सत्य ज्ञान व विद्या का प्रचार न होने से ही मनुष्य अविद्या से ग्रस्त होकर मत-मतान्तरों के आचार्यों के अज्ञान व अविद्या से युक्त मान्यताओं को मानने पर विवश रहते हैं। मत-मतान्तरों का अध्ययन करने पर भी इनमें ज्ञान की दृष्टि से अपूर्णता, अन्धंविश्वास, जीवन व व्यवहार के कुछ पुरातन नियम जो ज्ञान व समाज के हितकारी नहीं है, उनका व्यवहार किया व कराया जाता है। अतः आज का मनुष्य मनुष्यपन से किंचित दूर व भ्रमित दिखाई पड़ता है। इसका कारण समाज में ज्ञान व मनुष्य के श्रेष्ठ गुणों की प्रतिष्ठा न होकर धन व सम्पत्ति को अधिक महत्व दिया जाना प्रतीत होता है।
मनुष्य मनुष्य बनता है सद्ज्ञान को प्राप्त कर व उस ज्ञान के अनुरूप आचरण को करने से। सद्ज्ञान की प्राप्ति का स्थान मत–मतान्तर न होकर ईश्वर प्रदत्त वेदों का ज्ञान है। वेदों के अनुकूल उपनिषद, दर्शन तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ भी मनुष्यों को ईश्वर व सृष्टि विषयक ज्ञान सहित कर्तव्य व अकर्तव्यों का ज्ञान कराते हैं। वर्तमान समय में लोग इन ग्रन्थों के अध्ययन से विमुख हैं। इसका कारण उनका सुख सुविधाओं से युक्त पश्चिमी जीवन शैली को अपनाना है। इसका परिणाम यह होता है कि मनुष्य अपने जीवन में पुण्य कर्मों के संचय से वंचित हो जाता है। मनुष्य का यह जीवन तो कुछ नाम मात्र के भौतिक सुखों की प्राप्ति में समर्थ हो जाता है परन्तु इस जीवन के बाद जो परजन्म व पुनर्जन्म मिलना है, उसमें वह मनुष्य का शरीर प्राप्त करने की योग्यता भी प्राप्त न करने से वंचित रहता है। वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि हम इस जीवन में जो कर्म करेंगे, उसमें जमा किये गये संचित कर्मों के आधार ही परमात्मा हमारे अगले जन्म का निर्धारण करते हैं व उसे जीवात्मा को प्रदान करते हैं। इसी रीति से हमारा वर्तमान जन्म हुआ है। इसी प्रकार से मृत्यु के बाद हमारा पुनर्जन्म होगा। इस दृष्टि से सद्ज्ञान वा वेदज्ञान का मनुष्य जीवन में सर्वाधिक महत्व होता है जिसकी अज्ञानतावश उपेक्षा करने से मनुष्य की भारी हानि होती है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन के निर्णय स्वयं ले। वह दूसरों का अन्धानुकरण न करे। नियमित स्वाध्याय करे। चिन्तन व मनन करे और अपने सत्य कर्तव्यों का निर्धारण कर उनका पालन करें। ऐसा करते हुए हो सकता है कि उसके अपने बन्धु व परिवारजन भी उसका सहयोग न करें, परन्तु अपनी आत्मा की रक्षा तथा जन्म-जन्मान्तरों में अपने हिताहित के लिये उसे विवेक उत्पन्न कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने सहित सत्यमत, जो कि वेदमत है, उसी का ग्रहण व अन्यों का त्याग करना उचित है। इससे उसे अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति होगी। उसका जीवन सफल होगा और उसे सुख व सन्तोष प्राप्त होगा।
वेद मनुष्य को मनुष्य बनने की प्रेरणा करते हैं। इससे विदित होता है कि मनुष्य केवल मनुष्य की आकृति को प्राप्त होने से नहीं बन जाता अपितु उसे वेदज्ञान एवं वेदानुकूल कर्म करने होते हैं। ऐसा करके ही मनुष्य बना जाता है। यदि हम राम, कृष्ण तथा ऋषि दयानन्द के जीवन के उदाहरण लें तो हमें ज्ञात होता है कि इन महापुरुष के जीवन में सद्ज्ञान सम्पूर्ण रूप से विद्यमान था तथा इनका आचरण भी वेदज्ञान के अनुरूप व अनुकूल था। इसी कारण से आज भी इनका यश विद्यमान है तथा इनकी यशोगाथा का सभी सज्जन व साधु पुरुष गुणगान व अध्ययन करते हैं। हमें अपने जीवन में सुख भोग एवं त्याग के गुणों पर भी विचार करना चाहिये। जिस मनुष्य के जीवन में इन्द्रिय सुख भोगों की मात्रा अधिक तथा त्याग से युक्त कर्तव्यों का आचरण नहीं होता, वह जीवन प्रशस्त एवं प्रशंसनीय नहीं होता। हमें अपने जीवन की आवश्यकता की दृष्टि से स्वल्प मात्रा में भोजन, वस्त्र आदि पदार्थों का भोग करना है तथा हम जिन पदार्थों का त्याग कर सकते हैं, उनका दूसरों के उपयोग व हित के लिये त्याग भी करना है। ऐसा करके ही हमारे जीवन में सन्तोष उत्पन्न होगा जिससे हमें प्रसन्नता, सुख, सन्तोष, शान्ति व कल्याण का अनुभव होगा। शास्त्राध्ययन करने से भी हमें ऐसा ही करना विदित होता है। हमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर की उपासना आदि कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये अपितु इनके महत्व के अनुरूप इन्हें अपने जीवन में स्थान देना चाहिये। ऐसा करने पर ही हम मनुष्य कहलाने के सच्चे अधिकारी बनेंगे।
ऋषि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में मनुष्य की एक सारगर्भित एवं महत्वपूर्ण परिभाषा दी है। वह है कि मनुष्य वही होता है कि जो ‘मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख–दुःख और हानि–लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामथ्र्य से धर्मात्माओं, कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हों, उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे। अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस (मनुष्य) को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जायें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवें।’ महाराज भृतहरि के वह वचन भी मनुष्य को कर्तव्य बोध कराने में प्रेरक एवं सार्थक है जिसमें उन्होंने कहा कि चाहे कोई हमारी निन्दा करे या स्तुति करे, धन व लक्ष्मी आये या चली जाये, मृत्यु आज हो या युगान्तर में हो तथापि धीर व विवेकी मनुष्य न्याय व कर्तव्य पथ से कदापि किंचित विचलित नहीं होते। ऐसे मनुष्य का निर्माण करना ही हमारी शिक्षा पद्धति, हमारे माता-पिता तथा आचार्यों सहित हमारी शासन व्यवस्था का कर्तव्य होना चाहिये। यह सत्य है कि हम वैदिक मूल्यों से बहुत दूर आ गये हैं जहां से वेदों की ओर वापिस लौटना कठिन है, परन्तु यदि हम संकल्प कर लें और अपने कल्याण पर ध्यान दें तो हम अपने जीवन को एक सच्चे मनुष्य का सा जीवन बना कर इसे सफल कर सकते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य