राजनीति

देश का नाम याचिका से नहीं, जनाकांक्षा से बदलता है…

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को देश का नाम बदल कर ‘इंडिया’ से ‘भारत’ करने सम्बन्धी याचिका को खारिज कर ठीक ही किया। कोर्ट ने कहा कि इस याचिका की काॅपी सम्बन्धित मं‍त्रालय में भेंजे। इसका फैसला वहीं होगा। याचिका खारिज कर सर्वोच्च न्यायालय ने यही संदेश देने की कोशिश की कि किसी देश का नाम बदलना अथवा नया नामकरण करना उसका कार्यक्षेत्र नहीं है। देशों का नाम बदलने के फैसले सरकारें लेती हैं और इस फैसले के पीछे प्रेरक शक्ति जनता की आकांक्षा होती है। यह आकांक्षा नए सांस्कृतिक-राजनीतिक भाव बोध, ऐतिहासिक तारतम्य को ठीक करने अथवा किसी अनुचित या लज्जाजनक नाम को ठीक करने का कारण उपज सकती है। जाहिर है कि किसी देश का नाम बदलने का काम विधायिका और कार्यपालिका का है। इसी के साथ यह सवाल भी मौजूं है कि ‘इंडिया’ का नाम बदलकर ‘भारत’ करने के पीछे असली मंशा क्या है? क्या यह केवल एक ऐतिहासिक ‘गलती’ को ‘ठीक’ कर ‘एक देश एक नाम’ का सात्विक आग्रह है या फिर इसके माध्यम से एक विशिष्ट विचार को सुस्थापित करना है? दूसरे, अगर ‘इंडिया’ का नाम ‘भारत’ ही कर दिया जाए ( वैसे तो यह है ही) तो इससे व्यावहारिक फर्क क्या पड़ेगा? तीसरे, इस बात पर पहले भी काफी बहस हो चुकी है कि हमारे देश का सबसे सटीक और बहुमान्य नाम क्या होना चाहिए? भारत, हिंदुस्तान, इंडिया या कुछ और? क्योंकि प्राचीन काल से लेकर मध्यायुग तक भारत की पहचान एक भौगोलिक इकाई से ज्यादा सांस्कृतिक इकाई के रूप में रही है।

जहां तक यह याचिका लगाने का प्रश्न है तो सतही तौर पर यह बिल्कुल वाजिब है कि जब पूरा देश एक भौगोलिक-राजनीतिक इकाई है तो फिर इसके दो नाम प्रचलित रखने का क्या मतलब? बीते सौ सालों में कई देशों ने अपने पारंपरिक नाम बदलकर नए रख लिए हैं, लेकिन अब उनकी पहचान और नागरिकता उसी नाम से है, जो देश का वर्तमान नाम है। कई लोगों का मानना है कि ‘भारत’ और इंडिया’ वास्तव में एक भौगोलिक इकाई में एक साथ जीते दो देश हैं, जिनके बीच सोच, समझ, आचार और आर्थिक हैसियत के लिहाज से हिमालय सी दीवार खड़ी है। एक है गरीब, देशी सोच, और अंदाज वाला आत्ममुग्ध ‘भारत’ है तो दूसरा आधुनिक और आयातित राजनीतिक-आर्थिक विचारों के अंडे अपने घोसलों में सेने वाला प्रबुद्ध ‘इंडिया।‘ दोनो के बीच एक शाश्वत खाई है, जिसे आजादी के 70 सालों में भी नहीं भरा जा सका है। ऐसे में देश का नाम ‘भारत’ कर देने से कम से कम बाहरी रंगरोगन तो एक-सा हो ही जाएगा। दूसरा तर्क यह है कि पुराणकालीन भारत से लेकर मुसलमानो की सत्ता स्थापित होने तक भारत की पहचान कुछ अलग रही है और मुगलकाल से लेकर अंगरेजों के औपनिवेशिक काल तक भारत की पहचान और अलग रही है। हालांकि इसके भीतर एक सांस्कृतिक धारा अव्याहत बहती रही है, जिसे समय-समय पर वैदिक संस्कृति, ब्राह्मण संस्कृति या भारतीय संस्कृति नाम दिया गया है। इस दृष्टि से देखें तो भारत के प्राचीन समय में भी कई नाम प्रचलित थे। जैसे भारत वर्ष, आर्यावर्त और जम्बूद्वीप। इनमें भी जम्बूद्वीप का उल्लेख सम्राट अशोक से लेकर समूचे बौद्ध साहित्य में ‍मिलता है। यहां तक ‍िक सनातन कर्मकांड में संस्कृत श्लोकों में देश का नाम ‘जम्बूद्वीप ही लिया जाता है न कि ‘भारत’ का।

इस देश का नाम क्या हो, इसको लेकर हमारे संविधान निर्माताओं के मन में भी दुविधा रही थी। इसलिए संविधान में ‘इंडिया दैट इज भारत’ कहा गया। यानी वो ‘इंडिया’ जो कि भारत है। ऐसी मानसिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दुविधा शायद ही ‍किसी देश के नीति नियंताओं में रही होगी। इस बारे जानी-मानी नृतत्वशास्त्री कैथेरीन क्लेमेंटीन अोझा का 2014 में ‘समाज’ पत्रिका में एक शोध पत्र छपा था। जिसका शीर्षक था ‘इंडिया दैट इज भारत, वन कंट्री टू नेम्स।‘ इसमे उन्होंने इस देश के ‘भारत’ और ‘इंडिया’ नाम होने के पीछे के कारणों की व्यापक मीमांसा की थी। उन्होंने लिखा है ‍कि खुद संविधान सभा के सदस्यों ने यह सवाल उठाया था कि एक देश के दो नाम रखना बचकाना प्रयास है। इससे एक ही देश का नागरिक हिंदी में ‘भारतीय’ और अंग्रेजी में ‘इंडियन’ कहलाएगा। यह अपने आप में गंभीर मजाक है। लेकिन तब भी किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका था। ‘भारत’ को ‘इंडिया’ बनाए रखने के पीछे एक बड़ी वजह नव स्वतंत्र देश के अल्पसंख्यकों में यह अघोषित संदेश देना भी था कि स्वतंत्र भारत केवल हिंदुओं का अथवा हिंदू संस्कृति का देश नहीं है। यह संस्कृतियों का समुच्चय है। लेकिन साथ ही वो यह भी मान रहे थे कि इस देश की आत्मा हिंदू संस्कृति से ही ओतप्रोत है।

चूंकि हमारे देश पर सदियों से बाहरी लोगों के हमले होते रहे हैं, इस कारण परदेशी संस्कृति और सभ्यताअों का आदान-प्रदान भी खूब हुआ है। हम राजनीतिक रूप से बरसों गुलाम रहे हैं इस कारण यह ज्यादा अहम होता गया कि हमारे देश को विदेशी किस रूप में देखते और‍ किस नाम से पुकारते हैं ? धीरे-धीरे हमने उसी को सच मान लिया। यानी भारतवर्ष, आर्यावर्त या जम्बूद्वीप बाद में ‘हिंदुस्तान’ हो गया और हिंदुस्तान ‘इंडिया’ में तब्दील हो गया, जो आज तक कायम है। जबकि आजादी के आंदोलन से पहले तक ‘भारत’ से तात्पर्य नैसर्गिक सीमाअोंमें बंधा एक भूभाग था, जिसकी अपनी सांस्कृतिक पहचान थी। लेकिन बोलचाल या लोक व्यवहार में ‘भारत’ शब्द का चलन नहीं था। इसीलिए बाहरी लोग हमारे देश का समय-समय पर अलग-अलग नामकरण करते रहे और आज यह एक सचाई है।

अब सवाल यह कि स्वतंत्र भारत में ऐसी याचिका लगाने का असली मकसद क्या है? पूरी तरह से एक नाव में सवारी करना या फिर चलती नाव को नए विवाद के धारे पर डालना ? कुछ लोगों का मानना है कि संविधान में ‘इंडिया’ शब्द को ‘भारत’ शब्द से प्रतिस्थापित करने के पीछे उद्देश्य भारत की सम्प्रभुता का उद्घोष तो है ही प्रकारांतर से यह संदेश भी देना है कि ये वो देश है, जहां हिंदुओं का ही राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व है। वरना भारत की समावेशी वृत्ति ने तो भारत के साथ ‘इंडिया’ को भी उसी तरह आत्मसात कर ‍लिया है, जैसे नीम पर पनपती करेले की बेल।

वैसे किसी देश का नाम बदलना कोई अनहोनी नहीं है। अमूमन नव स्वतंत्र देश अपना नाम बदलते ही हैं या फिर उसे अपनी राजनीतिक प्रणाली से जोड़कर उद्घोषित करना चाहते हैं। कई देशों ने समय की धारा में लुप्त हुई अपनी प्राचीन पहचान को नाम बदलकर पुनर्स्थापित करने का प्रयत्न किया है। मसलन सीलोन का श्रीलंका, या बर्मा का म्यांमा। कुछ देश जैसे ईरान ने तो सरकारी आदेश के जरिए ही 1935 में अपना प्राचीन नाम फारस बदलकर ईरान कर ‍लिया। ‘सोवियत रूस’ ने फिर से ‘रशिया’ कर लिया। जबकि ‘शेजिया’ ने नया नामकरण ‘चेक गणराज्य’ किया।

लेकिन भारत की स्थिति इन देशो से काफी अलग है। इस देश में हिंदुत्व की अंतर्धारा के साथ कई अन्य सांस्कृतिक धाराएं भी एक साथ बहती आई हैं, बह रही हैं और बहती रहेंगी। आजादी के आंदोलन में इस देश ‘हिंदुस्तान’ के साथ ‘भारत पुनर्नामकरण भी हुआ। ‘भारत माता की जय’ नारा भी उसी की देन है। यकीनन देश का नाम कुछ भी रखें, उसकी आत्मा भारतीय ही रहेगी। सुप्रीम कोर्ट ने ठीक किया कि देश के ‘पुनर्नामकरण संस्कार’ का ‍अधिकार उस सरकार का माना जो जनता से शक्ति अर्जित करती है। देश की जनता सचमुच ऐसा चाहेगी तो संविधान में से ‘इंडिया’ शब्द बहिष्कृत हो सकता है। लेकिन इस पर सर्वानुमति चाहिए। पर लाख टके का सवाल यह कि इस घोर आर्थिक और स्वास्थ्य संकट में देश का ‘भारत’ कहलाने का प्रयास कितना सफल हो पाता है?

— अजय बोकिल

वरिेष्ठ संपादक
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 4 जून 2020 को प्रकाशित)

साभार – वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई