व्याकरण- व्यथा
प्रत्याहार संज्ञा जब तक सीखा, तब तक इत्संज्ञा मैं भूल गया।
हलन्त्यम् मुझसे दूर खडा, व्याकरण ने खूब शूल दिया।
मैं ह्रस्व दीर्घ न सीखा, पर उदात्त अनुदात्त पढ़ता था।
रकार परेशान वर्ण, कभी नीचे कभी उपर चढ़ता था।
शिवसूत्र न समझा, फिर क्या सवर्ण संज्ञा वर्णन लायक थी ।
मुझे लगता जैसे पूरी सिद्धान्तकौमुदी ही पीडा दायक थी ।
अनुनासिक अननुनासिक अणुदित्, आजतक नही जान पाया हूँ।
मैं कुछ सूत्र तो अजाद्यातष्टाप् वाली बकरी सा पत्ते समझकर खाया हूँ।
मेरा हलो$नन्तरा संयोग सा संयोग, गुरु जी के डण्डे से होता था।
उस डण्डे का संयोगान्त लोप, केवल सण्डे को होता था।
धन पद सब मिल पाये इसलिए सुप्तिङन्तं पदम् पढता रहता था।
मैं उदयन स्व वासवदत्ता की दूरी, अदर्शनं लोप समझकर सहता था।
मेरी डर के मारे, न गुरु जी से सन्निकर्ष संहिता होती थी।
अब मुझको देखकर सिद्धान्त कौमुदी भी स्वयं रोती थी।
इको यणचि की अचि मुझको रोज उलझाया रहती थी
तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य के माध्यम से क्या क्या कहती थी ।
पाणिनि का स्थाने$न्तरतम: सूत्र कभी स्थान नहीं बना पाया मेरे दिल में ।
अनचि च अच् से परे यर का द्वित्व करता रहा विकल्प में ।
देखो झलां जश झशि की वृत्ति, वृत्तिकार क्यों नहीं लिखा होगा ।
वृत्तिकार को झलां जश झशि का अर्थ स्पष्टम् दिखा होगा।
संयोगान्तस्य लोप: ने असहाय अपाहिज वर्णों को मार दिया था ।
पर अलो$न्त्यस्य का संविधान ये हत्या न स्वीकार किया था ।
पाणिनि का अलो$न्त्यस्य केवल अन्तिम वर्ण का भक्षण करता था।
वार्तिक यण: प्रतिषेधो वाच्य: से यणों के लिए आरक्षण करता था ।
— रामचन्द्र ममगाँई पंकज