कैसी है ये जिद तुम्हारी
उम्र के इस पड़ाव पर
मैं भूल गयी थी सब पढ़ा लिखा
अब कैसी है ये जिद तुम्हारी
कलम देकर कहते हो
थोड़ा लिखकर तो दिखा!
समझता नही कोई एहसासों को
सोचकर यही लिख-लिखकर
कभी मन के पन्नों से
कभी कापी के पन्नों से
कितनी बार देती हूँ मिटा!
जिंदगी की उलझनों को
एक उम्र न सुलझा पाई
कैसी है जिद यह तुम्हारी
कलम कापी देकर कहते हो
कुछ तो मुझको तू सिखा!
लिखे थे जो कभी मैं ने
रफ कापी के पन्नों में कुछ
टेड़े मेड़े शब्द भाव अपने
कैसी है ये जिद तुम्हारी कहते हो
उन पन्नों को अब मुझे दिखा!
— मीना सामंत