कविता

उम्मीदें

घिर सकता, घनघोर तिमिर,
निष्फल हो सकता प्रयास
डिग सकता, अडिग संयम,
पर उम्मीदें खत्म नहीं होती

ना समय कभी कोई ठहरा,
ना विजयी होता अंधियारा
ना संकट कोई अमिट रहा,
ना साहस किसी काल हारा
हिल सकता, दृढ़ धीरज,
पर दृढ़ता खत्म नहीं होती
डिग सकता, मन का संयम,
पर उम्मीदें खत्म नहीं होती

बना नहीं वो आकाश जहां,
ना पहुंच सकेगा उजियारा
धरा का ना कोई छोर जहां,
बह सकती नहीं सर धारा
थक सकता, दुर्बल बदन,
पर क्षमता खत्म नहीं होती
डिग सकता, मन का संयम,
पर उम्मीदें खत्म नहीं होती

है जब तक जीवित मानवता,
पृथ्वी जननी कहलायेगी
होगी परास्त विपदा समस्त,
प्रकृति जयघोष सुनायेगी
गिर सकता, झड़ में वरक,
पर टहनी खत्म नहीं होती
डिग सकता, मन का संयम,
पर उम्मीदें खत्म नहीं होती

*वरक – पत्ता, झड़ -पतझड़,

डॉ. अपर्णा त्रिपाठी

मैं मोती लाल नेहरू ,नेशनल इंस्टीटयूट आफ टेकनालाजी से कम्प्यूटर साइंस मे शोध कार्य के पश्चात इंजीनियरिंग कालेज में संगणक विज्ञान विभाग में कार्यरत हूँ ।हिन्दी साहित्य पढना और लिखना मेरा शौक है। पिछले कुछ वर्षों में कई संकलनों में रचानायें प्रकाशित हो चुकी हैं, समय समय पर अखबारों में भी प्रकाशन होता रहता है। २०१० से पलाश नाम से ब्लाग लिख रही हूँ प्रकाशित कृतियां : सारांश समय का स्रूजन सागर भार -२, जीवन हस्ताक्षर एवं काव्य सुगन्ध ( सभी साझा संकलन), पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनायें ई.मेल : [email protected] ब्लाग : www.aprnatripathi.blogspot.com