दोहा गजल : हिन्दी साहित्य में चमकती नई विधा
भारत के कई हिन्दी राज्यों में हमने आपने हिन्दी साहित्य के अनगिनत रंग यानी कि विधा रूप देखे हैं,भाषा के विद्वानों,कवियों द्वारा हिन्दी साहित्य में समय समय पर कई कठिन काम किए गए, हिन्दी व्याकरण बना उसके सांचे में काव्य को कस छंद के मानक तय किए, जो कि समय के साथ -साथ बड़ते भी रहे,हिन्दी काव्य लम्बे समय तक वही विधा कवियों ने अपनायी जिसे उन्होंने आसानी से समझा, वहीं जो विधा थोड़ी भी जटिलता में घिरी दिखी, साहित्यकार उसे पकड़ न सका, इसके चलते कई श्रेष्ठतम हिन्दी साहित्यिक विधाएँ साहित्यक किताबों की धरोहर बनी धरी हुई हैं, देखा तो यह जा रहा है कि हर दशक में किसी नई विधा के आने से उसके तेजी से चलन में बडज़ाने के चलते वह और भी यादगार बन जाती हैं,इसी कड़ी में गजल आई थी,गजल की शुरुआत उर्दू पारसी में हुई तथा इसे मुस्लिम नबावों पीर फकीरों ने पगवित किया,बड़ा किया,उस समय भारत मे सँस्कृत भाषा के पगू में हिन्दी तेजी से पल रही थी,चूँकि संस्कृत हिन्दुजन के धार्मिक ग्रंथों में अमरत्व लिए हुई थी,इसलिए हिन्दी को आगे बढऩे में बड़ी आसानी हो रही थी,और हां तत्कालीन वक्त में हिन्दी भाषाके साथ भी देश के हिंदी भाषा जन समुदाय के विभिन्न वर्ग द्वारा आमजन के बीच बड़ा भारी बुरा व्यवहार ही किया जा रहा था,वह ये कि जिस बोली को या लेखन को हिन्दी भाषा के रूप में प्रचार किया जा रहा था,असल में वह हिन्दी थी ही नहीं,वह अपनी अभिव्यक्ति के सम्प्रेषण को सरल बनाने बाली कई भाषाओं का मिश्रण थी,जिसमें अवधी, ब्रजभाषा, बुंदेलखंडी के साथ साथ ग्रामीणों की सहज बोली अंचल की ठकुर सुहाती तथा मसनद से उतर मिट्टी में सनी कामगिरी बोली के संग उर्दू फारसी सहित अंगेजी की झडऩ भी थी तो ऐसी बलात स्थिति को सहती हुई न होते हुए भी हिन्दी भाषा जबरन बना दी गई, भाषा आज भी इन घटनाओं में घुट रही है,तो जब गजल का चलन भारतीय साहित्य में आया तो लोग इसे जमीन देना ही नहीं चाहते थे,क्योंकि उस समय पद, सवैेया,कुंडली, सोरठा,चौपाई दोहा,सहित ऐसी ही बन्द कई विधा के छंद गीत में पगे होते थे, इनके विधान और व्याकरण विद्वजन के सिर चढक़र बोलते थे,ऐसे में काव्य की यह गजल विधा उर्दू भाषी घुमंतुओं के साथ जगह जगह अंतरराष्ट्रीय यात्रा करती हुई भारत भी आई,लेकिन लम्बे अंतराल तक यहां पर गजल जमीन नहीं पा सकी, जानकारों की सुनें तो गजल हिंदुस्तान में 300 साल से है अमीर खुसरो ने भी कई गजले लिखीं,अमीर खुसरो तो अपने ईष्ट के लिए लिखते रहे,जिन्हें इस वसुधा के सभी संगीतज्ञ अपने सुरों के सिर माथे लेते हैं,कलमकारों की इसी कड़ी में कुछ समय बाद सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा और कई हिंदी के बड़े साहित्यकारों ने भी गजल पर काम करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें यह रास नहीं आई। उस समय तक ज्यादातर गजलें रूमानियत यानी प्यार मोहब्बत की ही लिखी जाति थी और उर्दू के शायर इसमें माहिर थे। दुष्यंत कुमार त्यागी ने इसे रूमानियत से बाहर निकाल कर आम आदमी की जिंदगी के दुख तकलीफों से जोड़ा, यानी उन्होंने यथार्थ को गजल में स्थान दिया, साथ ही कई प्रयोग भी उन्होंने किए। हालांकि उनकी कई गजलों को हिंदी की गजलें कहा जाता है, लेकिन उन्होंने बाहर के स्तर पर कोई ज्यादा बदलाव नहीं किया यानी कि जो उर्दू गज़़ल की बहरें है वहीं उन्होंने अपनाई है। लेकिन उन्होंने आम आदमी के यथार्थ जीवन को गजल में उकेरा इसलिए हुआ ये कि हिंदी के साहित्यकारों के वे प्रिय और प्रेरणा स्रोत बन गए। जैसा कि हमेशा ही हर काल खंड में देखा जाता रहा है कि जो उर्दू तथा हिन्दी भाषा पर जानकारी कम रखते थे,साथ ही मिजाज जिनका रंगीन भी रहा,उनमें सुरा सुंदरी की भी ओर खिंचाव था ,थोड़ी बहुत सुर संगीत में भी रुचि थी,वे साहित्यिक लोग गजल की ओर रमकने लगे।
गजल की ओर इन्हें आकर्षित करने में जिसका प्रमुख महत्वपूर्ण यगदान था, वे थीं तत्कालीन तवायफें जो कि स स्वर प्रेम विछोह को तवले की थाप के साथ गाती हुई,रईशों के साथ साथ समाज के एक बिगड़ेल तबके का मनोरंजन करती थी,जिस चीज की तवायड़ के कोठों पर गायिकी थी वह कोई कन्हैया,मल्हार या लांगुरिया या भजन तो नही थे वे असल में नज्म और गजल हीं हुआ करती थी,तो इस प्रक्रिया से गुजरते हुए गजल कोठों से पाज़ेब पहन महफिल में गुन गुनाती हुई मुशायरे के फर्श पर जा जमीं,इस तरह गजल को भारी सराहना मिलने लगी,कुछ समय बाद जब ये हिन्दी भाषा के जानकारों के सानिध्य में आई तोगजल को हिंदीभाषी बनाने की सफल कोशिश हुई ,जिस का श्रेय जैसा कि पहले बता ही दिया है कि दुष्यंत त्यागी के सिर रहा, दुष्यंत जी के बाद तो हिन्दी गजलकारों की मानों बाढ़ ही आ गई,जिन्होंने अपने ही मानक और व्याकरण बना डाले,जब यह उठा पटक चल ही रही थी कि बीते 2004 के लगभग एक नई वर्ण संकर प्रजाति बाली विधा साहित्यकारों के जहन में जगह बनाने लगी,जिसे साहित्यक पत्र पत्रिकाओं के साथ साथ मुशायरा मंच एवं कवि गोष्ठियों में सुना पढ़ा जाने लगा। गजल के दोहे से निकाह कर जन्मती ये नई वर्ण संकर प्रजाति बाली विधा है ंदोहा गजल,इसमें दोहा अपने अंदर गजल को समाए हुए चलता है और पूर्ण होने से ठीक पहले अपने भीतर चल रही गजल को मुख से उलट सामने खड़ा कर देता है । दोहा गजल लिखने का व्याकरण बडा सरल है, जिस प्रकार दोहा १३ व ११ मात्रा में चलता हैै उसी तरह इसमें अब अगली लाइन को चूंकि शेर में तब्दील करना है, तो जिस तरह से दोहे को रूप दिया जाना है वैसे ही यह आगे चलेगा, उदाहरण दोहा ग़ज़लकार प्रतिभा दुबेदी स्वरूप दो लाइनें –
कहीं जगत में ना मिले, घर सी शीतल छॉंव ।
उसी छॉंव की ओर अब,..लौट चले हैं पॉंव ।।
तुलसी, बरगद,नीम सब,…देख रहे हैं राह ,
उसी राह की ओर अब,… लौट रहे हैं पॉंव ।
चलते-चलते धूप में,… बदन थकन से चूर ,
फटी बिवांई साथ ले,…लौट रहे हैं पॉंव ।
सफर कटेगा किस तरह,नहीं किसी को ज्ञात,
आस पोटली शीश धर,…लौट रहे हैं पॉंव ।
तो आपको, हिन्दी साहित्य की लगातार चल रही नई विधा दोहा गजल पर अपनी कलम चलाते रहना है।
— राजेश अवस्थी लावा