सामाजिक

समाज और परिवार की जागरुकता से रुक सकती हैं आत्महत्याएँ

सुशांतसिंह यह नाम हर जुबां पर है। शायद जो लोग उस प्रतिभा सम्पन्न लड़के को पहले नहीं जानते थे। वे भी आत्महत्या के बाद उसे जानने लगे। उसके काम की तारीफ करने लगे और आत्महत्या को घिनौना काम बताते हुए दार्शनिक अंदाज में आत्महत्या को कायराना हरकत बता कर अपने संवेदनशील होने का प्रमाण दे रहे है। धर्म शास्त्रों में आत्महत्या करने वाले को क्या कहा गया है। जो आत्महत्या करता है उसका क्या होता है। ये तमाम बातें अफ़सोस भरे शब्दों में लोग सोशल मीडिया पर और बातचीत में आपस में कर रहे है। संवेदना से भरे तमाम लोग बात तो सही कर रहे है तमाम बातें और जुमलें अब सुशांतसिंह के लिए किसी काम के नहीं है। लेकिन उन बातों को, तथ्यों को और स्थितियों को समझ कर हम थोड़ा भी ध्यान दे तो इनसे भविष्य में आत्महत्या करने वाले को रोका जा सकता है।

सुशांत सिह का जीवन कैसा था, कितनी प्रतिभा उनमें थी, कम उम्र में ही किस ऊंचाई पर वो पहुंचे यह सब उनकी मौत के बाद तमाम टीवी चैनलों ने दिखाया और अपने अपने तर्क दे कर यह बताने की कोशिश की कि सुशांत सिंह ने अपनी जीवन लीला क्यों खत्म करी। हर आत्महत्या के बाद चर्चाओं का इतना नहीं होता। सब जगह चर्चा सुशांत सिंह की थी क्योंकि वे ग्लैमर की दुनिया में थे, पर वे चर्चाएँ अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य समाज के एक पुराने सवाल का जवाब दे रही थी। वो सवाल है-लोग क्यों आत्महत्या करते हैं?

सबसे ज्यादा आत्महत्याएं भारत में होती है

शायद ये पढ़कर आप चौंक जाएंगे कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दुनियाभर में होने वाली आत्महत्याओं को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक दुनिया के तमाम देशों में हर साल लगभग आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें से लगभग 21 फीसदी आत्महत्याएं भारत में होती है। यानी दुनिया की सबसे ज्यादा आत्महत्याएं भारत में होती है। देश में शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो जब देश के किसी न किसी इलाके से गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, कर्ज जैसी तमाम आर्थिक तथा अन्यान्य सामाजिक परेशानियों से परेशान लोगों के आत्महत्या करने की खबरें न आती हों।

रिपोर्ट का एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि भारत में आत्महत्या करने वालों में बड़ी तादाद युवाओं की है, यानी जो उम्र उत्साह से लबरेज होने और सपने देखने की होती है उसी उम्र में लोग जीवन से पलायन कर जाते हैं। इस भयानक वास्तविकता की एक बड़ी वजह यह है कि पिछले कुछ दशकों में लोगों की उम्मीदें और अपेक्षाएं तेजी से बढ़ी हैं, लेकिन उसके सामने अवसर उतने नहीं बढ़े। दरअसल, उम्मीदों और यथार्थ के बीच बड़ा फर्क होता है। यही फर्क अक्सर आदमी को घोर अवसाद और निराशा की ओर ले जाता है। नवउदारीकृत अर्थव्यवस्था ने हमारे सामाजिक और पारिवारिक ढांचे को जिस तरह चोट पहुंचाई है उससे देश में आत्महत्या की बीमारी ने महामारी का रूप ले लिया है। ऐसा नहीं है कि लोग आत्महत्या सिर्फ आर्थिक परेशानियों के चलते ही करते हों, अन्य सामाजिक कारणों से भी लोग अपनी जान दे देते हैं।

आत्महत्या करने वालों की मनोस्थिती

दुनिया की एक बड़ी आबादी कभी न कभी आत्महत्या करने के बारे में सोच चुकी होती है। कुछ लोगों में आत्महत्या करने के विचार बड़े तीव्र होते हैं और लंबे समय तक बने रहते है, तो कुछ में ऐसे विचार क्षणिक होते हैं। कुछ समय बाद उन्हें हैरानी होती है कि आख़िर वे ऐसा कैसे सोच सकते हैं। हालांकि आप किसी को देखकर तो यह नहीं बता सकते कि इस व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है इसलिए आमतौर पर आत्महत्या करने वालों के मनोस्थिती की पहचान नहीं कर सकते। लेकिन कुछ मनोवैज्ञानिक बाहरी लक्षण हैं, जो आत्महत्या करने की मनोस्थिति के बारे में थोड़ा-बहुत आइडिया दे देते हैं।

जिनके मन में लगातार नकारात्मक विचार चलते रहते हैं उनका आत्मविश्वास कम हो जाता है। वे अपने मनोभावों को व्यक्त करने नहीं कर पा रहे हो। उनकी खानपान की आदतों में अचानक बड़ा बदलाव देखने मिलता है। ये लोग अपने शारीरिक स्थिती को लेकर उदासीन हो जाते हैं। उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे कैसे दिख रहे हैं। एक महत्वपूर्ण बात जो आत्महत्या की प्रवृत्ति वालों में देखी जाती है वह यह कि वे लोगों से कटने लगते हैं। सामाजिक और पारिवारिक लोगों से वे दुरियां बनाने लगते है। और ख़ुद को नुक़सान पहुंचा सकते हैं। कई बार वे ख़ुद को छोटा-मोटा नुक़सान पहुंचाते भी हैं।

आमतौर पर जिन लोगों में ख़ुद को समाप्त करने की भावना आती है, उनका सोचना होता है कि ज़िंदा रहने का कोई मतलब नहीं है। उन्हें जीवन दुख से भरा लगता है। वे ख़ुद को बेकार मानते हैं। धीरे-धीरे उन्हें लगने लगता है कि उनके आसपास के लोग उन्हें पसंद नहीं करते है। कोई उनसे प्यार नहीं करता है। वे महत्वहीन हैं। लोग उनके बिना बेहतर रह सकते हैं। ऐसे लोग एकाकी होने लगते है और अपनी और अपनों की ज़िंदगी की बेहतरी का रास्ता अपने जीवन की समाप्ति में ही देखते हैं। कभी-कभी लोग क्रोध, निराशा और शर्मिंदगी से भरकर ऐसा क़दम उठाते हैं। चूंकि उनकी मनोस्थिति स्थिर नहीं होती अत: ये विचार उनमें आते-जाते रहते हैं। कभी वे बिल्कुल अच्छे से रहने लगते हैं और कभी फिर से अवसाद में चले जाते हैं।

आत्महत्या को प्रेरित करती परिस्थितियां

यह बता पाना संभव नहीं है कि कौन-सा व्यक्ति किस बात को लेकर इतना बड़ा क़दम उठा सकता है। पर कुछ परिस्थितियां आत्महत्या को लेकर व्यक्ति को उस ओर प्रेरित करती है। जिन लोगों को जीवन में असफलता का सामना करना पड़ता है वे दुनिया का सामना करने से डरते हैं और आत्महत्या की ओर क़दम बढ़ाते हैं। जिन लोगों के परिवार या दोस्तों में किसी ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया होता है वे भी यह राह चुनने को प्रेरित होते हैं। जो लोग असल ज़िंदगी में लोगों से मिलने-जुलने के बजाय आभासी दुनिया यानी वर्चुअल वर्ल्ड में अधिक समय बिताते हैं, वे भी इस मानसिकता से गुज़रते हैं। आभासी दुनिया का असर ख़तरनाक हो सकता है। जो लोग समाज द्वारा ठुकरा दिए गए होते हैं, उनमें भी ख़ुद को ख़त्म करने की प्रवृत्ति होती है। जिन लोगों को कोई असाध्य बीमारी हो जाती है, वे भी निराशा के दौर में यह क़दम उठा लेते हैं। शराब और ड्रग्स जैसे नशे के आदी लोग भी आत्महत्या करने की दृ‌ष्टि से काफ़ी संवेदनशील होते हैं। कभी-कभी आर्थिक और भावनात्मक क्षति भी लोगों को इस मुक़ाम तक पहुंचा देती है।

समाज और परिवार की जिम्मेदारी

आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति एक तरह से सामाजिक दुर्घटना है। आज व्यक्ति अपने जीवन की कड़वी सच्चाइयों से मुंह चुरा रहा है और अपने को हताशा और असंतोष से भर रहा है। आत्महत्या का समाजशास्त्र बताता है कि व्यक्ति में हताशा की शुरुआत तनाव से होती है जो उसे खुदकुशी तक ले जाती है। आज इंसान के चारों तरफ भीड़ तो बहुत बढ़ गई है लेकिन इस भीड़ में व्यक्ति बिल्कुल अकेला खड़ा है।

हम जिस समाज में रहते है उसमे अगर अचानक या धीरे-धीरे किसी पारिवारिक सदस्य, मित्र में इस तरह के बदलाव दिखते है तो हमें सचेत हो कर उसे भावनात्मक सहारा देना चाहिए। ताकि वो अवसाद की खाई से बाहर निकलकर सोच सके। नकारात्मक सोच को बाहर निकालने का रास्ता दिखाएं। उन लोगों की पहचान करें, जिनसे मिलकर, जिनसे बात कर वो नेगेटिव फ़ील करने लगते हो। ऐसे लोगों को उनकी ज़िंदगी से दूर करे। उन लोगों बीच रखें जो उनको हंसाते हों।आपको अच्छा महसूस कराते हों। आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हों।

अस्त-व्यस्त ज़िंदगी और ग़लत जीवनशैली पर कुछ टीका टिप्पणी करने के बजाए उनको प्रेम से व्यवस्थित रहने, खाने-पीने के लिए उत्साह जगाए। नियमित रूप से कुछ समय उनके साथ व्यायाम या योग करते हुए बिताएं। साथ ही ध्यान और मैडिटेशन करवाए जिससे मानसिक स्थिती में भी एक चमत्कारिक लाभ होता है।
सबसे अहम् बात ऐसे लोगों को अकेले तो भूलकर भी न रहने दे। परिजन या दोस्त संग रहे। उनके संग यात्रा करे। नई जगह पर जाने से थोड़ा तरोताज़ा महसूस करेंगे। सकारात्मक कहानियां और प्रेरक बातें पढ़वाए। यदि आप किसी परिचित से अपने इन मनोभावों को व्यक्त करने में झिझक रहे हों तो किसी मनोचिकित्सक से मिलें। याद रखें, ज़िंदगी से ज़्यादा महत्वपूर्ण कुछ और नहीं होता। हमारे यहॉ मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कम ध्यान दिया जाता है और पूरी दुनिया में मानसिक रूप से सेहतमंद बने रहने के लिए कोई योजना नहीं है। जो चिंता का विषय है।

भारत जैसे पारंपरिक रूप से मजबूत तथा परिवार के भावनात्मक ताने-बाने से युक्त धार्मिक और आध्यात्मिक देश में भी खुदकुशी की चाह लोगों में जीवन जीने के अदम्य साहस को कमजोर कर रही है। जबकि विश्व में भारतीयों के बारे में कहा जाता है कि हर विपरीत से विपरीत स्थितियों में जीवित रहने का हुनर इनके स्वभाव और संस्कार में है और इसी वजह से भारतीय सभ्यता और संस्कृति सदियों से तमाम आघातों को सहते हुए कायम है। यदी कोई आपका अपना जीवन से टूट रहा है तो उसे सम्हालें। उसकी मानसिक स्थिती को बदलने का हर संभव प्रयास करे। उसे मानसिक संबल दे ताकि भविष्य में कोई सुशांत सिंह जैसी प्रतिभा, कोई विद्यार्थी, कोई मजदूर या किसान इस दुस्साहस की ओर कदम न बढ़ाए। और हम फिर वही प्रश्न न दोहराए।

— संदीप सृजन

संदीप सृजन

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