मन की गति
मन की गति का अनुमान लगाना दुष्कर है
ये ऐसा सागर है जिसका पार पाना दुष्कर है
बस्ती बस्ती कानन कानन, भटके दिशा दिशा
हां लक्ष्य पर अपने ध्यान टिकाना दुष्कर है
मन ही में तो बनती हैं, दीवारें नफरत की
प्रेम है ईश्वर मन को समझाना दुष्कर है
अंधेरा है अज्ञानता का, है मैं ही मैं मन में
सोया हो जिनका विवेक जगाना दुष्कर है
माया का अनुगामी, भूला है मायापति को
बेरंगे प्रभु संग इसको मिलाना दुष्कर है
व्याकुल पंछी जाने क्या खोजे, घूमे इधर उधर
उन्मुक्त गगन में उड़े, इक ठौर बिठाना दुष्कर है
मन ही है सखा, शुभचिंतक और मन ही है वैरी
पल पल रंग बदलता है काबू में लाना दुष्कर है
कभी हां तो कभी ना है, दुविधा में पड़ा रहता
विकट है समस्या इसको सुलझाना दुष्कर है
सुख मन से, दुख भी मन से, मन के ही हैं भ्रम
मन को आनंद की गंगा में बहाना दुष्कर है
बुनती है जाल मकड़ी, जाल में ही फंस जाती
बुनो ना जाल जिससे स्वयं को छुड़ाना दुष्कर है