एक और बली
बाप अभी जिंदा है
सड़क किनारे गुब्बारे बेचने वाला एक परिवार महामारी के चलते अपने घर की ओर पलायन कर जाता है। पैसे न होने की वज़ह से उन्होंने पैदल ही चलने की सोची।
अभी थोड़ी दूर ही पहुंचे थे कि बच्चों की मां शांति की तबीयत बिगड़ जाती है और वह भगवान को प्यारी हो जाती है।
उसके दोनों बच्चे नव और पुछ मासूम से मां को उठाने में लगे रहते हैं परन्तु वह नहीं उठती क्योंकि अब उनकी मां इस दुनिया से अलविदा कह चुकी थी।
एक और बली असहाय होकर कोरोना की भेंट चढ़ चुकी थी। यह सब पुनीत बच्चों का पिता आंखों में आंसू लिए पास बैठ देखता रहता है। अपने फैसले को कोसता है जब वह गांव छोड़ शहर की ओर मुंह करके खड़ा हो गया था।
महामारी के चलते आज़ उसी शहर ने उसे पराया कर दिया था। अब उसके गुब्बारे खरीदने वाला भी कोई नहीं था और न ही उसके परिवार की भूख मिटाने वाला। पत्नी भी आज़ उसे अलविदा कह! दूर आकाश तले! तारा बन चमकने को मजबूर थी।
यह सब देख वह घबरा गया था कि कहीं यह महामारी, पेट की भूख और प्रकृति का तांडव मेरा पूरा परिवार न छीन ले। यह सब सोचने पर मजबूर पुनीत घबराहट में सड़क किनारे अपनी पत्नी के शव के पास बैठ अपने बच्चों को अपनी तिर-बितर हुई कमीज़ से ही ढक देता है। बच्चों को यह अहसास कराते हुए कि वे अकेले नहीं हैं। बाप अभी जिंदा है इस दुनिया में उनको छत देने के लिए।
मौलिक रचना
नूतन गर्ग (दिल्ली)