कहानी

#मन_की_गाँठ# (कोरोना इफेक्ट)

#मन_की_गाँठ# (कोरोना इफेक्ट)
साठ साल की सोमवती जी बेचैनी से करवट बदल रही थीं, कभी उठती बाथरूम जातीं कभी ग्लास में पानी उड़ेलतीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आज की खबर से वो इतनी बेचैन क्यों थीं। बार-बार खिड़की के पर्दे हटाकर देखतीं, सुबह हुई या नहीं। कोई तो दुःख था जो उन्हें मथ रहा था। कितनी रात गए उनकी आंख लगी उन्हें पता ही नहीं चला।
“दादी..दादी उठो! आज कितनी देर कर दी तुमने, देखो तो दस बज गए।” दस साल के पोते वीर की आवाज सुनकर उनकी आंख खुल गयी।
“अरे इतनी देर हो गयी आज!” वो बड़बड़ाते हुए उठी और वीर को प्यार करके बाथरूम में घुस गयीं।
” पापा! दादी अभी सो रही थीं, मैं अभी जगाकर आया उनको।” बेटे की बात सुनकर लक्ष्मण और सीमा एकदूसरे का मुँह देखने लगे। उनके लिए ये बेहद आश्चर्य की बात थी। मां को यहाँ आये दो साल हो गए थे पर कभी भी वो इतनी देर तक नहीं सोई। अबतक तो वो सोसाइटी के बाहर वाले मंदिर के भजन कीर्तन में शामिल होकर घर भी आ जाती थीं। लक्ष्मण को चिंता हुई वो मां के कमरे की ओर बढ़ गया। वहाँ जाकर देखा तो सोमवती जी चुपचाप कुर्सी पर बैठी खिड़की के बाहर देख रही थीं।
” क्या हुआ माई, तबियत ठीक नहीं क्या तुम्हारी? आज तुमने पूजा भी नही किया?”
‘नहीं लछमन ऐसी कोई बात नही, रात में देर से आँख लगी तो उठने में देर हो गई।”
“तो क्या हुआ माई चलो बाहर वीरू बैठा नाश्ते के लिए इंतजार कर रहा।” लक्ष्मण ने मां को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया।
“तु चल हम आ रहे हैं, आज तो तुम्हारी ऑफिस भी नहीं होगी, कोई बीमारी फैली है ना!”
“हाँ माई, बड़ी खराब बीमारी है, एक आदमी से दूसरे के हो जाती है। इसी कारण सरकार ने सबकुछ  बन्द कर दिया है।”
“चल!” कहते हुए वो अपने चेहरे की मायूसी को ढकने की नाकाम कोशिश करते हुए लक्ष्मण के साथ बाहर हॉल में आ गईं जहाँ लक्ष्मण की पत्नी सीमा और वीर उनदोनों का इंतजार कर रहे थे। सीमा ने सबको नाश्ता परोसा और उनकी तरफ देखते हुए चिंतित स्वर में बोली–
“क्या हुआ मां जी? आपकी तबियत तो ठीक है ना?”
“हाँ! तबियत सही है हमारी। अच्छा ये बताओ कबतक बन्द रहेगा सबकुछ?”
“बस कुछ दिन की बात है माई।” लक्ष्मण ने जवाब दिया।
सबलोग नाश्ता करके उठने लगे, उन्होंने देखा सोमवती जी ने तो कुछ खाया ही नहीं। उन्हें लगा लोकडाउन के वजह से उनका मन उदास है।
  सोमवती जी पिछले दो साल से अपने छोटे बेटे के साथ शहर में रह रहीं थी और उनके पति बड़े बेटे के साथ पास के गाँव में।
   उन्होंने दो सालों से अपने पति का मुँह नहीं देखा था। पर आज जब टीवी में सुना कि ये बीमारी बच्चों और बूढ़ों के लिए ज्यादा खतरनाक है तब से उनका मन बेचैन था। दो वर्ष की नाराजगी आँखों के रास्ते पिघलने लगी थी। बार-बार सोचती बच्चों से एकबार गाँव की खबर लें पर चाह के भी वो ऐसा नहीं कर पातीं आखिर करें भी तो कैसे करें, खुद ही कसम दे रखीं थीं इस घर में उनके सामने गाँव की कोई बात नहीं होगी। हाँ कभी- कभी बड़े बेटे राम से बात जरूर कर लेतीं पर वहाँ भी पिता के बारे में बात करने की मनाही थी उनकी तरफ से।
आखिर क्या किया था राम के बाबूजी ने, जिससे तिलमिलाकर उनकी जैसी धैर्यवान स्त्री ने इतना बड़ा फैसला ले लिया। आज सबकुछ फ़िल्म की तरह उनके आँखों के सामने घूमने लगा था।
  पैंतालीस बरस पहले ब्याह के आईं थी उस घर में। जहाँ सास, विधवा चचिया सास और एक बड़ी ननद ने उनका स्वागत किया था। भरा पूरा घर था, अपनी उम्र से तीन साल छोटा एक देवर और उससे दो साल छोटी एक और ननद, जिनकी जिम्मेदारी सास ने उनको हांडी छुआते समय ही सौंप दिया। पंद्रह बरस की नादान उमर में ही पूरी गृहस्थी का बोझ ढ़ोते हुए वो कब परिपक्व हो गयीं उन्हें खबर ही नहीं लगी। बड़ी ननद ससुराल में झगड़ा करके नैहर में आके बैठ गयीं थीं जिनका हुक्म बजाते-बजाते रात हो जाती पर उनको सोमवती जी कभी सन्तुष्ट नहीं कर पायीं। ससुरजी दबंग इंसान थे उनके सामने किसी के मुँह से आवाज भी नहीं निकलती। सबकी दबी कुचली कुंठाएँ बिचारी सोमवती पर ही उतरने लगी थीं। ले देकर एक पति थे जो अपना सा लगते थे पर वो भी मां और बड़ी बहन के सामने केवल उन्हींलोगों का पक्ष लेते।
सोमवती जी को संस्कार घुट्टी में पिलाकर पाला गया था, कुछ भी हो जाता मुँह नहीं खोलती बस चुपके से अँधेरी रातों में आँसू बहा लिया करतीं। दिनरात सबको खुश करने में अपना जी जान लगा देतीं पर पर वो कभी अपनी इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पायीं। बस एक सहारा रहा जीवन का कि पति ने कभी उनमें मीनमेख नहीं निकाला ये अलग बात थी कि कभी परिवार के अन्याय के खिलाफ उनका पक्ष भी नहीं लिया। जीवन के इन कटु अनुभवों को अपनी नियति मानकर वो चुपचाप सब सहती रहीं पर कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। प्यार के दो मीठे बोल को तरसती सोमवती को भगवान ने समय पर दो बेटे राम और लक्ष्मण के रूप में उनके जीने के लिए दो बड़े मकसद दे दिए, जिन्हें देखकर उन्होंने अपनी हालातों से खुशी-खुशी समझौता कर लिया।
बेटे बड़े होते- होते मां की तकलीफ समझने लगे थे। पिता की चुप्पी देखकर  वो तिलमिला के रह जाते पर कुछ बोल नहीं पाते। वो पिता जो परिवार के सामने पत्नी से कभी बोलते तक नहीं वो कम से कम बेटों के प्रति असीम स्नेह रखते थे। समय बीतता रहा देवर ने अलग घर बसा लिया, छोटी ननद भी ससुराल वाली हो गयी। वक़्त और उम्र के असर से ससुर जी भी धीरे-धीरे शांत हो गए पर उनकी शांति ने सास को मुखर बना दिया। उनकी और बड़ी ननद की मनमानियां बढ़ती रहीं। सास को अपने बड़े बेटे पर बहुत गुमान था, हो भी क्यों नहीं ब्याह के 21 बरस बीतने के बाद भी बेटे ने कभी मां को रोका- टोका जो नहीं। जब भी जरूरत पड़ी सोमवती जी ही दबाई जाती रहीं।
   सोमवती जी ने भी सबसे आसरा छोड़ दिया था अब तो वो केवल अपने बेटों के भविष्य के लिए जीने लगी थीं। बेटे बड़े होने लगे, बड़ा बेटा खेती बाड़ी देखने लगा, छोटा मेहनती था पढ़-लिखकर सरकारी नौकरी में चला गया। वक़्त पर बच्चों के भी शादी ब्याह  हो गये।
  सोमवती जी को वो दिन अच्छे से याद है जिसदिन उनके धैर्य ने आखिर जवाब दे ही दिया। बड़ी बहू गर्भ से थी इसलिए मायके गयी हुई थी। लक्ष्मण और उसकी बहू होली की छुट्टी में गाँव आये हुए थे। सास बुढ़ापे के रोगों से ग्रसित हो चुकी थीं जिसकी वजह से उन्हें भूलने की बीमारी ने जकड़ लिया था। होली के दूसरे दिन की ही तो बात थी वो सास को खाना खिलाकर उनकी कोठरी से बाहर निकली ही थीं कि पतिदेव कोठरी में घुसे और कुछ ही देर में गुस्से से तमतमाये हुए बाहर निकले। आँगन में बेटे बहू और पोता बैठे बातें कर रहे थे तभी वो सोमवती जी के पास पहुँचे और उनके बाल पकड़ते हुए चिल्लाए—-” हरामखोर…कमीनी मेरी माँ उधर भूख से तड़प रही और तू इधर गलचौरा बतिया रही.. क्या चाहती है वो भूखे मर जाए और तू ठाठ से मजे करे।” कहते हुए उन्होंने बिना कुछ सुने उनके गाल पर थप्पड़ रसीद कर दिया। बस उसदिन सोमवती जी ने उनका हाथ पकड़ा और उन्हें झटकते हुए पहली बार अपना मुँह खोलीं —” बस, राम के बाबू अब बस! ई अंत है, हम मरते मर जायेंगे पर तुम्हारा मुँह इस जनम में कभी नाही देखेंगे।”  बेटे तो सकते में थे कि आखिर हो क्या रहा, पर जब उन्हें बात समझ आयी उन्होंने बाप को जमकर धिक्कारा और पहली बार माँ के साथ खुल के खड़े हो गए।
    उसी दिन वो छोटे बेटे के साथ शहर आ गयीं। वो दिन और आज का दिन उन्होंने सच में कभी पति का मुँह नहीं देखा।
  पर आज क्यों बार- बार उन्हें राम के बाबूजी याद आ रहे थे। वो ये सोचकर कर घबरा रही थीं या फिर उनके मन में गहरे एक भय बैठ गया था कि कहीं कुछ अनहोनी….वो सोचकर ही सिहर जाती।
    पूरा दिन बीत गया पर वो कमरे से बाहर नहीं निकली, बेटा-बहू हार गए, पोता वीर रोने लगा—“दादी क्या हो गया आपको? चलिए ना मेरे साथ खेलिए, मुझे आपसे कहानी भी सुननी है पर वो टस से मस नहीं हुईं। बस इतना ही कहा– ” तुमसब मुझे अकेला छोड़ दो अभी, मैं खुद बाहर आ जाऊंगी।”
अगले दिन से वो सहज होकर अपनी दिनचर्या में लग गईं पर भीतर ही भीतर मथना जारी रहा। हाँ बेटे के फोन की घन्टी बजने पर उनके कान खड़े हो जाते और खासकर जब गाँव से फ़ोन आता। पर विडंबना ये थी कि वो किसी से कुछ पूछ नहीं सकती थीं, आखिर नियम भी तो उन्हीं का बनाया हुआ था, कि गाँव व पिता के बारे में उनके सामने कोई चर्चा नहीं होगी।
घर से बाहर निकलना बंद था यहाँ तक कि मंदिर के कपाट भी बन्द हो गए थे नहीं तो सुबह और शाम का पूरा समय उनका वहीं बीतता जहाँ भजन कीर्तन के साथ ही कुछ हमउम्र सखियां भी उन्हें मिल गयीं थीं। बाकी समय बेटा बहु और पोते के साथ बीत जाता।
 आज बंदी के दस दिन हो गए थे, दिन पर दिन उनके मन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। बच्चे मिलकर उनका ध्यान बंटाने की कोशिश करते पर कितनी देर? पोता उन्हें नए-नए खेल सिखाता, कहानियां सुनने की जिद करता जिसके साथ कुछ देर वो मन की बेचैनी भूल जाती पर 24 घण्टे बहुत होते हैं। मन की पीड़ा ने उनके स्वास्थ्य पर असर डालना शुरू कर दिया। लक्ष्मण और सीमा उनकी हालत देखकर परेशान हो रहे थे पर उन्हें समझ नहीं आ रहा था वो करें तो क्या करें।
  एक दोपहर को  खाना खाकर सब अपने- अपने कमरे में आराम कर रहे थे। लक्ष्मण हॉल में बैठे टीवी देख रहे थे तभी फ़ोन की घन्टी बजी जिसकी आवाज सुनकर सोमवती जी अपने दरवाजे के पास आकर खड़ी हो गयीं।
“हाँ भैया! उधर का क्या हालचाल है…अरे कब? कैसे? वो ठीक तो हैं ना? …. क्या करूँ इधर का तो आप देख ही रहे हो कहीं भी आना जाना बंद कर रखा है सरकार ने……हाँ वो तो है हॉस्पिटल के नाम पर तो छूट है पर….मां???….” उधर की बात सोमवती जी को सुनाई नहीं पड़ रही थी पर किसी अनिष्ट की आशंका से वो अधीर हो उठीं।
तभी सीमा हॉल में आयी—” अरे आप टेंशन में क्यों हैं? क्या हुआ?” लक्ष्मण को परेशान देखकर उसने पूछा।
“भैया का फ़ोन था, बाबू जी रात में आँगन में गिर गए थे, उनके कूल्हे में चोट आई है, बैठ भी नहीं पा रहे। गाँव के डॉक्टर ने कहा है कि कूल्हे की हड्डी सरक गयी है जो बिना ऑपरेशन सही नहीं हो सकती। समझ नहीं आ रहा सीमा क्या करूँ? उधर बाबू जी इधर माई। मैं उन्हें यहाँ बुलाकर माई को दुःख नहीं पहुंचा सकता। क्या करूँ समझ नहीं आ रहा।”
“आप टेंशन मत लीजिए सब ठीक हो जाएगा, पहले शांति से सोचते है कुछ न कुछ हल तो निकल ही जाएगा।”
 शाम को सबलोग छत पर बैठकर चाय पी रहे थे। जहाँ लक्ष्मण और सीमा की कोशिश थी कि मां को कुछ भी पता ना चले वहीं सोमवती जी बार-बार बेटे के चेहरे की तरफ देख रहीं थीं कि शायद वो कुछ बोले या उनसे कुछ पूछे। पर लक्ष्मण को क्या पता मां क्या सोच रहीं गलती उसकी भी नहीं थी इन दो वर्षों की उनकी कठोरता ने उसे विश्वास दिला दिया था कि मां बाबूजी के प्रति कभी पिघल नहीं सकतीं। पिछले बरस बाबूजी को लू लग गयी थी तब मां ने सीधे कहा था मुझे किसी आश्रम में भेज दे फिर बाबूजी को यहाँ ले आये। अब उसे क्या पता टीवी पर आते समाचारों ने उसकी माँ को विचलित कर दिया था। वो तो यही सोच रहा था दिनभर घर में कैद रहने की वजह से मां बेचैन है।
    अगले दिन सीमा अपने कमरे में लक्ष्मण से बोली- “एक काम करो आप, भैया जी को कह दीजिए वो बाबूजी को लेकर हॉस्पिटल आ जाएं आप सीधे हॉस्पिटल जाकर बाबू जी को दिखा दीजिए।”
“पर अगर डॉक्टर ने रुकने को कहा तब?”
“तब मां से बात करेंगे हम। फिलहाल आप हॉस्पिटल में पता कर लीजिए।”
“ठीक है आज हॉस्पिटल जाकर पता करता हूँ।”
नाश्ता करने के बाद लक्ष्मण राशन लेने के बहाने घर से निकल गए। सीमा का सर बहुत भारी हो रहा था तो वो वीरू और मां को टीवी देखने के लिए बोलकर अपने कमरे में आराम करने चली गयी।
  सोमवती जी वीरू के साथ बैठी तो थीं पर टीवी पर उनका ध्यान बिल्कुल नहीं था तभी उनकी नज़र टेबल पर पड़े लक्ष्मण के मोबाइल पर पड़ा। उन्होंने धीरे से मोबाइल उठाया और वीरू को इशारे से बुलाकर अपने कमरे में ले गयीं।
“क्या हुआ दादी? कितना मजेदार कार्टून चल रहा था और आप मुझे कमरे में ले आईं। चलिए ना टीवी देखते हैं, पापा आ जाएंगे तो वही बोरिंग न्यूज़ देखने लगेंगे।”
“रुक बेटा! मेरा एक काम करेगा?”
“हाँ हाँ दादी बोलो ना!” वीरू अपने कार्टून छूटने की हड़बड़ी में बोला।
“तुझे गाँव का नम्बर पता है?”
“याद तो नहीं दादी नम्बर पापा के मोबाइल में सेव है।”
“ये देखो पापा का मोबाइल!” उन्होंने धीरे से कहा।
“अरे! पापा अपना मोबाइल भूल गए? हाँ दादी इसमें गाँव का नम्बर है, बोलो क्या करना है?”
“नम्बर मिलाओ पर किसी को बताना नहीं।” सोमवती जी ने धीरे से कहा।
“किसे फ़ोन करूँ दादी? दो नम्बर है एक दादाजी का दूसरा बड़े पापा जी का।”
सोमवती जी घबरा रहीं थीं जैसे कोई चोरी कर रहीं हो पर उन्होंने हिम्मत जुटाकर वीरू को दादाजी का नम्बर मिलाने को कह दिया।
उधर से फ़ोन उठते ही वीरू ने दादी को फ़ोन थमाया और भागकर टीवी देखने चला गया।
सोमवती जी हड़बड़ा गयी और मोबाइल उनके हाथ से छूट गया। उधर से हेलो! हेलो! की आवाज आ रही थी, उन्होंने चारों ओर देखा और धीरे से फ़ोन उठाकर कान के पास ले आईं।
“हेलो! कौन है? लक्ष्मण?” दो साल बाद पति की आवाज सुनकर सोमवती जी के कलेजे में एक अजीब तरह का हौल उठा जो गले से होकर आँखों में पिघलने लगा। पर वो आँखों से बाहर ना आकर गले में वापस जाकर अटक गया। जिसकी वजह से सोमवती जी की आवाज गले के नीचे घुटकर एक धीमी सी हिचकी में बदल गयी, जिसे सुनकर फ़ोन के दूसरी तरफ सन्नाटा छा गया। कुछ पलों कि खामोशी ने दोनों  के कानों में कुछ घोलने लगा था। अभी सोमवती जी आँखों मे पिघलते लावे को निगलने की कोशिश कर ही रहीं थीं उधर से एक धीमी आवाज आई–” रामू की माँ!” फिर तो वो गर्म लावा सिर्फ आँखों से ही नहीं सोमवती जी के साँसों की सिसकी से भी फूट पड़ी।
“मैं जानता हूँ रामू की माँ तुम कुछ बोलोगी नहीं। बोलना चाहिए भी नहीं, आज बोलने की बारी मेरी है सिर्फ मेरी।” फिर वो कुछ पलों की चुप्पी के बाद एक गहरी सांस लेते हुए बोले—-“45 साल की चुप्पी और दो साल का पश्चाताप मुझे चैन से मरने नहीं देगा रामू की माँ।” पति की रुँधी आवाज ने सोमवती के धैर्य का बांध तोड़ दिया और वो फफककर रो पड़ीं।
“नहीं सोमवती! आज नहीं रोना नहीं तो वो आँसू मेरे सीने में जम जाएंगे, अब उस बोझ को लेकर भगवान के पास कैसे जा पाऊँगा।”
“नहीं रोती राम के बाबूजी।” सोमवती जी अपने आँसू पोछती हुई पहली बार बोलीं।
“मुझे माफ़ कर दो सोमवती बहुत अति किया मैंने तुम्हारे साथ, सबकुछ देखते हुए भी आँखे बंद किये रहा, क्या करता? तुम्हीं बताओ जिस मां को बचपन से अपने पिता के सामने डरते हुए ही देखा उसे मैं भी गलत कैसे बोलता। मैं जानता था वो अपने जीवन का सारा आक्रोश तुमपर उतारती रहीं पर मुझे तुमपर विश्वास था कि तुम मुझे मेरी माँ की नज़रों में कभी झुकने नहीं दोगी.. आह!…”
“अब कुछ मत बोलो रामू के बाबूजी! तुम्हारे इस विश्वास ने मेरी सारी तकलीफ हर ली।”
“नहीं सोमवती आज बोलने दो मुझे नहीं तो खुद को ही अपना मुँह नहीं दिखा पाऊंगा कभी। जानती हो! बहन को ससुराल से भगा दिया गया था मैं उसे नैहर में अपमानित नहीं होने देना चाहता था इसलिए उसकी गलती पर भी आँखे बंद किये रहा। पर मेरी अनदेखी की सजा तुमने भुगता जीवन भर। और जिसदिन मैंने तुमपर हाथ उठाया उसदिन तो मुझसे महापाप हो गया महापाप! मेरे और बाबूजी में कोई अंतर ही नहीं रहा। जैसे-जैसे मां की भूलने की बीमारी पता चलती गई मैं भीतर ही भीतर टूटता गया। मेरे उस पाप की सजा  तुमने तो बहुत कम दियापर मैं खुद तिलतिलकर…..”
“बस करो राम के बाबूजी! अब कुछ मत कहो।” सोमवती जी अपने पति को रोता हुआ नहीं देख सकती थीं।
“सोमवती एक बार माफ कर दो मुझे…तुम्हें देखे बिना मरना नहीं चाहता…” जीवन भर की दबी कुचली सोमवती पति के इस अबोले प्रेम से निहाल हो गयी।
“चुप करो अब, अभी हड्डी तोड़वा के बैठे हो, ऊपर से ई मुआ पता ना कौन सा किरौना फैला है। अब शुभ-शुभ बोलो और कल सुबह रामू को लेकर यहाँ आ जाओ, समझे कि नाही?” सोमवती को पता ही नहीं चला दरवाजे के पीछे उसके बेटे बहु की दो जोड़ी आँखों से खुशी के आँसू ढुलक रहे थे।
“जानती हो रामू की माँ! मैं डर गया था कहीं तुम्हें देखे बिना ही इस दुनिया से…..तभी तो परसों रात जानबूझकर आँगन में….”
  ———–कविता सिंह———–

कविता सिंह

पति - श्री योगेश सिंह माता - श्रीमति कलावती सिंह पिता - श्री शैलेन्द्र सिंह जन्मतिथि - 2 जुलाई शिक्षा - एम. ए. हिंदी एवं राजनीति विज्ञान, बी. एड. व्यवसाय - डायरेक्टर ( समीक्षा कोचिंग) अभिरूचि - शिक्षण, लेखन एव समाज सेवा संयोजन - बनारसिया mail id : [email protected]