कविता

#संभल_जाओ#

लड़ रहे हैं सभी
अपने अस्तित्व की लड़ाई,
जिसे प्रकृति ने बनाया,
विभक्त किया सभी को
समभाव से साधन सभी,
अपने अपने अस्तित्व को
अक्षुण बनाये रखने हेतु,
पर हम तो लोभी
लोभ में पगे हुए,
रहे निरन्तर प्रयत्नशील
बनने हेतु सर्वशक्तिमान,
दूसरों के अस्तित्व को
मिटाते- मिटाते,
कब करने लगे वार,
अपने ही अस्तित्व
की नींव पर निरन्तर,
प्रकृति जननी है हमारी
स्वयं क्षत-विक्षत होकर
सिसकती रही,
बिलखती रही..फिर भी
करती रही
आगाह….रुक जाओ
ठहर जाओ एक पल को,
मत रौंदों जननी की कोख!
तथापि..
अंधे- बहरे, स्वमुग्ध,
लँगड़े मेरुदंड को संभालते
स्वयं को मान बैठे
अपनी ही जननी के रचयिता..
देखो!!
आज उसके रौद्र रूप
से घबराये, भयभीत,
दुबके पड़े लड़ रहे
अपने ही अस्तित्व को
बचाने हेतु एक सूक्ष्म और
अनदेखे से लड़ाई!
    “सुधर जाओ, सम्भल जाओ!!”!
— कविता सिंह

कविता सिंह

पति - श्री योगेश सिंह माता - श्रीमति कलावती सिंह पिता - श्री शैलेन्द्र सिंह जन्मतिथि - 2 जुलाई शिक्षा - एम. ए. हिंदी एवं राजनीति विज्ञान, बी. एड. व्यवसाय - डायरेक्टर ( समीक्षा कोचिंग) अभिरूचि - शिक्षण, लेखन एव समाज सेवा संयोजन - बनारसिया mail id : [email protected]